एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Wednesday, December 31, 2008
कहते हैं नया साल नई ज़िन्दगी जैसा.....
आज का दिन भी बस यूँ ही निकल गया ,
कहते हैं नया साल नई ज़िन्दगी जैसा,
लेकिन क्या आज अपना कुछ भी बदल गया ?
आज भी रात खवाबों में तुम ही तो थे ,
आज भी सब गुलाबों में तुम ही तो थे ,
आज भी चाँदनी में में बैठी तो थी ,
आज भी ठंडी आँहों से दिल जल गया ,
कहते हैं नया साल नई ज़िन्दगी जैसा
लेकिन क्या आज कुछ भी बदल गया ?
आज भी ठण्ड में मैं सिमटती तो हूँ ,
आज भी चुपके चुपके सिसकती तो हूँ ,
आज भी तेरी तस्वीर आंखों में है ,
आज भी मेरा जैसा मेरा कल गया ,
कहते हैं नया साल नई ज़िन्दगी जैसा
लेकिन क्या आज कुछ भी बदल गया ।
में तुझसे बिछड़ के मरी तो नही ,
और रोई भी में हर घड़ी तो नही ,
आज भी तेरी यदून से जिंदा तो हूँ ,
आज फिर दिल मेरा यूँ ही संभल गया ,
कहते हैं नया साल नई ज़िन्दगी जैसा ............................
Tuesday, December 30, 2008
बे-इन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...!!!
दिन अधियारा और रात सर्द हो गयीं ..
आँखें हसीन मेरी जुदाई से जर्द हो गयीं...
खुशी एक एक कर सारी दर्द हो गयीं...
बेइन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...
तुमसे मिलने की तमन्ना और बढ़ गई...
याद तेरी हर एक जेहन में मेरे गढ़ गई...
दिल से उठी कसक आँखों में चढ़ गई...
बेइन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...
सिलवटे बिस्तर की चुभने लगी...
आगोश में तेरी कमी खलने लगी...
हसरतें तुझे पाने को मचलने लगी...
बेइन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...
लगा मेरी जिंदगी तेरी एक अमानत है...
तेरा एहसास मेरे दिल में सलामत है...
तेरी मोहब्बत भी मुझे एक इनायत है...
बेइन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...
लम्हे भी सदियों से लगने लगे ...
अक्स सारे तेरे सांचे से बनने लगे...
बादल मेरी आँखों से बरसने लगे...
बेइन्तेआह तन्हाई का मौसम जब आया...
भावार्थ...
Monday, December 29, 2008
कितने समंदर दिल में छुपाये होंगे !!!
जब मुझसे मिल कर ये अश्क छलक आए होंगे...
उसके लबो में जान आ जाती है गमशुदा हो कर...
कितने ताले उसने थिरकते लबो पे अपने लगाये होंगे...
अंधेरे से डरती थी फ़िर भी वो मिलने आई मुझसे...
कितने चिराग यादो के उसने जेहेन में जलाये होंगे...
तनहा जो दो कदम भी चली नहीं जिंदगी की राहो में...
कोसो उसके नंगे पाव किस आस में चल आए होंगे...
लिबास में छुपे रहे उसके जो अदा और हुस्न के जलवे...
कैसे वो बे-परदा आस्तां से शहर में निकल आए होंगे ...
भावार्थ...
Sunday, December 28, 2008
तेरे चेहरे से बयान होते हैं...!!!
जेहेन में उमड़ते तूफ़ान तेरे चेहरे से बयान होते हैं...
ऐ मोहब्बत में रातो को उठ उठ कर रोने वाले सुनजा ...
आंसू तेरे आँखों से नहीं गीले हिजाब से बयान होते हैं...
वादे तुने जो भी किए मुझसे सब के सब झूठे निकले...
न आने के चर्चे तेरे घर से नहीं मजार से बयान होते हैं...
खुशी की इन्तेआह जो तुझे उसकी बाहों में मिल रही है...
मुस्कुराहटों से नहीं निशाँ उसके खरोंचो से बयान होते हैं...
भुला चुकी मेरी यादो के निशाँ ऐ मेरी जिंदगी -ऐ-मोहब्बत ....
कहने से नहीं वो तो तेरी ढलती आँखों से बयान होते हैं...
भावार्थ...
जी चाहे तो !!!
जी चाहे तो पैमाना बन जा...
शीशा पैमाना क्या बनना....
मय बन जा मयखान बनजा...
मय बनके मयखाना बनके...
मस्ती का अफसाना बन जा...
मस्ती का अफसाना बनके...
हस्ती से बैगाना बन जा...
हस्ती से बैगाना बनना...
मस्ती का अफसाना बनना...
इस बनने से इस होने से ...
अच्छा है दीवाना बन जा...
दीवना बन जाने से ही ...
दीवाना होना अच्छा है...
दीवाना हो जाने से भी...
खाके दरेजाना बन जा...
खाके दरे जाना क्या है...
अहले दिल की आँख का सुरमा...
शम्मा की दिल की ठंडक बन जा...
नूरे दिले परवाना बन जा...
सीख जहीन के दिल से जलना....
काहे को हर शम्मा पे जलना...
अपनी आग में ख़ुद जल जाए...
तू ऐसा परवाना बन जा...
रक्स-ऐ-बिस्मिल (एल्बम)
Saturday, December 27, 2008
कह दो वो दिल की बातें !!!
मुझे समझ में जो आती नहीं और जो तुम्हे सताती हैं...
बेकरारी रातो की कुछ खयालो का ही सिला होगा...
कह दो उन अफसानो को जो तुम्हें ये रात सुनाती हैं...
पल पल में टीज ने तेरे इस जेहेन को झकझोरा है ...
न ख़ुद सोती है याद मेरी और ना ही तुम्हे सुलाती है...
सालो के मलहम ने तेरे चाक जो सारे सिल पाये...
मुझसे जुड़ी ये कसक भी तुझको वहीँ वहीँ दुखाती है...
अक्ल की बात सदा ही तेरे लबों तक पहुँची है ...
अब वो कह दे जो हर पल तेरे दिल में उभर के आती है...
कह दो वो दिल की बातें जो तुम्हारे दिल में आती हैं....
मुझे समझ में जो आती नहीं और जो तुम्हे सताती हैं...
भावार्थ...
Friday, December 26, 2008
उसे मुझे से शिकायत है !!!
मेरे हमदम को मुझसे बस इतनी शिकायत है ...
जवानी की दहलीज़ पे भी बचपन क्यों मुझसे जुदा नहीं होता...
मेरा हमनशीं मुझसे बस इस बात पे खफा है...
मेरी जुबान पे जो भी आता है उसमें सलीका नहीं होता...
मेरा हमसफ़र बस इस बात पे मुझसे नाराज है...
में उसके साथ चलती हूँ पर मेरा साया साथ नहीं होता...
मेरा हमराही बस इतनी सी बात पे रूठा है...
मुझे साल के कुछ ख़ास दिनों का क्यों ख्याल नहीं रहता...
पर किस तरह उसको बताऊँ ?
किस तरह अपनी जिंदगी को समझाऊं ?
ज़माने के दिए सारे गम उसके भुलाने को ...
मेरे भीतर का बचपन मुझसे अब भी जुदा नहीं होता...
मुझे दिल की बात कहने में सुकून मिलता है...
तो जुबान से निकली बात में मेरे कोई सलीका नहीं होता...
मेरा साया उसपे पड़ने वाली बालाओं को लेता है...
तो जब में चलती हूँ तो वहां मेरा साया साथ नहीं होता...
जिसे पल पल की फ़िक्र रखनी हो अपने हमदम की...
उसे साल क्या दिन क्या किसी भी बात का ख्याल नहीं रहता...
पर काश !!! वो इसे समझे...
मेरे खाब-ओ-ख्याल को समझे...
मेरे अनकहे जज्बात को समझे...
जैसी भी हूँ में उसके लिए हूँ ...
उसकी दुनिया उसकी जिंदगी हूँ ...
उससे जुदा हो कर में कहाँ कुछ हूँ...
पर काश !!! वो इसे समझे...
भावार्थ...
तुम बिन
माँ बिन बचपन जैसा है।
माँ बिन बचपन कैसा है
तुलसी बिन आँगन जैसा है।
तुलसी बिन आँगन कैसा है
सूरत बिन दर्पण जैसा है।
सूरत बिन दर्पण कैसा है
बादल बिन सावन जैसा है।
बादल बिन सावन कैसा है
माँ बिन बचपन जैसा है
माँ बिन बचपन कैसा है
तुम बिन जीवन जैसा है।
एक हादसा !!!
मेरी क्रिसमस कहते लोग...
शोर के साथ नाचते लोग...
गले मिलते हाथ मिलाते लोग...
नशे में गम को भूलते लोग...
छुट्टी का मजा उठाते लोग...
रंगीनियाँ रात के साथ बढ़ रही थी...
पुराने पब में हजारो नाचते...
जोश की हर सीमा को लांघते...
पर चकाचौंध से कुछ कदम दूर...
पब के पीछे जहाँ आलीशान कारे थी...
वहां सिर्फ़ कोयले सा अँधेरा था...
असल में वहां कुछ तिरपाल से बने घर थे...
जहाँ कुछ मजदूर रहते थे...
कुछ अमीर जादे आए सफारी में सवार...
हाथो में महंगी शराब ...
बाहों में हुस्न बेहिसाब....
शोर बहुत था और उनका जोश भी...
नशा चढा...और बेहोशी भी...
तेज सफारी से शराब की बोटेल फैंकी...
कांच सीधा सोते बच्चे पे गिरा...
सोता हुआ बचपन हमेशा के लिए सो गया...
उनका क्रिसमस का मजा पूरा हो गया...
बच्चे की बिलखती माँ ,तड़पता बाप...
किसको रोये किसको चिल्लाये ...
कुछ दूर तक भागा हाफता हुआ ...
सफारी के पीछे नहीं...हस्पताल की तरफ़...
पर मौत कहाँ इंतज़ार करती है....
अँधेरा था उसके इर्दगिर्द...
पड़ी ईंट को शायद देख नहीं पाया...
बच्चे को ले कर गिरा, फ़िर उठा...
पर जिधर रौशनी थी उधर जश्न था...
और जिधर अँधेरा था उधर उसकी उम्मीद...
भागता भागता बोहिल हो गया...
मुझे नहीं पता क्या हुआ उसके बाद...
पर खौफनाक था जो भी हुआ...
मैंने किसी से मेरी क्रिसमस नहीं कहा...
भावार्थ...
Thursday, December 25, 2008
मुझे जिससे मोहब्बत है !!!
क़ैद में हूँ इन समाज की सलाखों में कुछ जता नहीं सकता...
जिंदगी भर उसके एहसास को खुदा दिल में जिन्दा रखे...
में जल रहा हूँ जिस आग में ख़ुद उसको बुझा नहीं सकता...
वहां मेरी मोहब्बत उसके जेहेन में बड़े तूफ़ान लाती है...
यहाँ इश्क के समंदर में अरमान मेरा साहिल पा नहीं सकता...
वोह मेरी हीर आँखों में रात भर नींद बन कर रहती है...
दिन भर खुली आँखों में उसके खाबो को युही बसा नहीं सकता...
कहानी में ही सही उसके लबो पे मेरा नाम तो आता है...
झूठे मूटे को ही सही में उसका नाम किसीको बता नहीं सकता...
इन साँसों में उसकी साँसों की गर्मी मैंने हर पल महसूस की है...
उसकी प्यास को अपनी रूह से मैं युही अब हटा नहीं सकता...
मुझे जिससे मोहब्बत है उसको मैं अपना नहीं सकता...
कैद मैं हूँ इन समाज की सलाखों में कुछ जता नहीं सकता...
भावार्थ...
वो धुंध भरी रात भी अजीब थी !!!
दो अजनबी कुछ फासले पे...
जाने पहचानो की तरह बैठे रहे...
अल्फाज़ दूरियां भर नहीं पा रहे थे...
बातें धुंध में जैस गुम हो रही थी...
निगाहें उसके चेहरे को ताकती ...
अपनापन तलाशती और धीरे से...
अजनबी बन जाती पहले की तरह...
रात उड़ती रही हमारे इर्द गिर्द...
और धुंध उसके साए में समां गई...
कुछ मशाल दिए बन के रह गए ...
और दुनिया के नज़ारे धुंध में खो गए...
आँखों की रौशनी थकने लगी...
सड़क कोहरे से मिटने सी लगी...
उसने कुछ कहा ...फ़िर मैंने भी...
उसने कुछ सुना....और मैंने भी...
समय रुक गया था, हमारी कार...
धुंध में बस रेंग सी रही थी...
मैंने उसकी हथेली अपनी हथेली में...
रख उसकी किस्मत पढ़नी चाही ...
उसकी लकीरों में अपनी सूरत पढ़नी चाही...
नर्म एहसास उसने मुझमें भर दिया...
दर्द मीठे एहसास में तब्दील कर दिया...
उसके गेसू जब धुंध की हवा उडा कर लायी...
मुझे खुशबू उसकी जैसे छु गई...
हर बात उसकी कही शहद बन के बह निकली...
मेरी सोच उसके खयालात में खो गई...
कब अजनबी अपने बन गए पता न चला...
फासला पल का घंटो तक पता न चला...
मेरे गहरे चाक कुछ एक पल को भर गए...
लम्हों की बूंदे यादो का समंदर बना गई...
उसकी हर बात जेहेन में धुंध सी छा गई...
मेरे जज्बात अब मेरे न रहे...
दो अजनबी अब अजनबी न रहे...
वो धुंध भरी रात भी अजीब थी !!!
भावार्थ...
Wednesday, December 24, 2008
तुम मेरे हो
बैचैन रहते हैं उस दिन से हम...
लगता है ऐसा खुदा की कसम...
तुम मेरे हो ...तुम मेरे हो...
सावन है बरसात होती नहीं...
खुल के कोई बात होती नहीं...
कैसे बताएं ये तुमको सनम...
तुम मेरे हो ...तुम मेरे हो...
शायर जो होता तो तेरे लिए...
कहता ग़ज़ल मैं कोई प्यार की ...
होता मुस्सविर तो अपने लिए ...
मूरत बनता रूखे यार की....
तस्वीर तेरी बनता मैं...
सारे जहाँ को दिखता मैं...
लेकिन में मुसाविर नहीं
है ये बात की शायर नहीं...
कैसे बताएं ये अबको सनम...
की तुम मेरे हो...तुम मेरे हो...
रातों को करवटें बदलते हैं हम...
शम्मा की मानिंद जलते हैं हम...
तुम ही बताओ की हम क्या करें...
चारो तरफ़ देखते हैं तुम्हे ...
इसमें खता क्या हमारी है...
हर शय मैं सूरत तुम्हारी है...
कलियों मैं तुम बहारो मैं तू...
इस दिल मैं तुम हो नज़रों मैं तुम...
कैसे बताएं ये तुमको सनम...
की तुम मेरे हो....तुम मेरे हो...
पाकिस्तानी शायर...
मुस्सविर जो होता तो मूर बनता ...
कुछ नही लिखती हूँ
क्या बताऊँ
क्यूँ नही लिखती गजलें ,
नज्में, गीत ,मुक्तक या रुबाई
कुछ भी बात नही
शायद ज़ज्बात
ठंडे पड़ गए हैं
दर्द बढ़ के
दवा हो गया है
या शायद मेरी तकदीर का
कुछ और फैंसला हो गया है
और
कभी तो बस कुछ सूझता ही नही है
यही कहा था
पर सोचती हूँ क्या यही सच था
क्या में महसूस करना भूल गई हूँ
या फिर लिखना ही शायद
नही मैं कुछ भूली नही हूँ
कुछ भी नही
पर डर है नई यादों से
नई बातों से
डर है गर लिखा तो
वोह डर बयां हो जाएगा
डर है की
जुबान जो कह नही पाती
वो कागज़ पे उतर आया तो
मेरा दिल
कुछ लफ्जों में
नज़र आया तो
झूठ लिखना
मेरी आदत नही है
और सच लिखने की हिम्मत नही है
कागज़ पे लफ्ज़ नही
रूह रखती हूँ
इसीलिए आजकल
कुछ नही लिखती हूँ
...
Tuesday, December 23, 2008
मेरी छुई मुई...!!!
नाज़ुक है ऐसी मेरी छुई मुई...
धुंध कि रेशमी कोई चादर हो...सावन को ओढे कारे बादर हो...
हवा में उड़ता हो कोई पंख...
सागर में तैरता हो कोई संख...
फूंक से जैसे खुशबू हो उडी...
दिए से जैसे कि लौ हो जुड़ी...
कच्ची मिटटी का खिलौना जैसे...
बचपन का खाब सलोना जैसे...
धुप जो पत्तो से झड़ के गिरे...
बूंदे जो डालियों से बह के गिरे...
नाज़ुक है ऐसी मेरी छुई मुई...
मेरी छुई मुई...
भावार्थ...
Monday, December 22, 2008
मद्धम खुशबू !!!
मद्धम खुशबू धीमे से गुलज़ार से निकली...
ओस में नहाई सुबह से सजी...
रंगों को ओढे बहारो सी खिली...
छू गई उस धुंध को जो अभी गीली थी...
नदी की छत से बही जो अभी नीली थी...
बूंदे निगाह भर देखने को गिरने लगी...
भंवरो की तमन्ना भी फ़िर मचलने लगी...
रेशम सी हलकी खुशबू बह निकली...
मद्धम खुशबू धीमे से गुलज़ार से निकली...
भावार्थ...
मुहब्बत तर्क की मैंने !!!
ज़माने अब तो खुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैंने...
अभी जिंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ खल्वत में...
की अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने...
उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है...
कोई कुछ मुद्दत हसीं खाबो में खो कर जी लिया मैंने...
बस अब तो दामन-ऐ-दिल छोड दो बेकार उम्मीदों
बहुत सीख सह लिया मैं ने बहुत दिन जी लिया मैंने...
साहिर लुधियानवी...
Sunday, December 21, 2008
मैं अब वो नहीं रहा !!!
मुझसे नाराज़ है की मैं अब वो नहीं रहा...
सफ़ेद संग सा मेरा अब जमीर वो नहीं रहा...
तामीर-ऐ-जेहेन मेरा अब चट्टान सा नहीं रहा...
नूर-ऐ-रूह मैं मेरे वो अब उजाला नहीं रहा...
मेरा माजी अपनी जवानी की दहलीज़ पे ...
मुझसे नाराज़ है की मैं अब वफ़ा नहीं रखता...
चेहरा बदल रहा हूँ एक शक्ल नहीं रखता...
गुरूर झलकता है अब वो अदब नहीं रखता...
मगरूर-ऐ-हासिल हूँ अब वो अक्स नहीं रखता...
मेरा माजी अपनी जवानी की दहलीज पे...
मुझसे नाराज है की मुझमें अब वो बात नहीं है ...
बस बेहूदगी पहेनली है अब वो संजीदगी नहीं है...
झूठे तिलिस्म बना लिए हैं अब वो सादगी नहीं है...
कितने टुकडो मैं जी रहा हूँ अब वो जिंदगी नहीं है...
भावर्थ...
Saturday, December 20, 2008
अगर इक आशिक न होते !!!
मिटते न यु मोहब्बत में तो हम भी बेमिसाल होते...
हमारी शख्शियत जो कूंचों पे नीलम हुई तेरे लिए ...
न मिलती नज़रे तुझसे तो हम भी नूर-ऐ-जलाल होते...
वखत उस मगरूर ने हमारी जानी ही नहीं वरना ...
लाखो के जवाब न सही हम पर करोडो के सवाल होते...
हमारे चिराग की रौशनी इतनी भी कम न थी बेवफा...
न होते जो परवाने तेरे तो हम भी जलती मशाल होते...
एक तू ही तो खूबसूरत नहीं दुनिया में नाजनीन बता ...
तेरी तमन्ना न होती तो हम भी किसी का मलाल होते...
बुझ गए किसी दिए की तरह हम भी फूँक से आज फ़िर...
तेरी आस नहीं होती तो हम भी मुनव्वर-ऐ-हिलाल होते...
भावार्थ
Friday, December 19, 2008
तुम पूछो और में न बताऊँ
एक जरा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं है...
किसको ख़बर थी सांवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं....
सावन आयन लेकिन अपनी किस्मत में बरसात नहीं...
टूट गया जब तो फ़िर साँसों का नगमा क्या माने...
गूँज रही हैं क्यों शहनाई जब कोई बारात नहीं हैं...
मेरे ग़मगीन होने पे अहबाब हैं यु हैरान कतील ....
जैसे में पत्थेर हूँ मेरे सीने में जज्बात नहीं...
कातिल शिफई...
लज्ज़त-ऐ-गम बढ़ा दीजिये...
लज्ज़त-ऐ-गम बढ़ा दीजिये...
आप यू मुस्कुरा दीजिये...
कीमत-ऐ-दिल बता दीजिये...
ख़ाक ले कर उड़ा दीजिये...
आप अंधेरे में कब तक रहे...
फ़िर कोई घर जला दीजिये...
चाँद कब तक गहन में रहे...
आप जुल्फें हटा दीजिये...
मेरा दामन बहुत साफ़ है...
कोई तोहमत लगा दीजिये...
एक समन्दर ने आवाज दी...
मुझको पानी पिला दीजिये...
लज्ज़त-ऐ-गम बढ़ा दीजिये...
आप यू मुस्कुरा दीजिये...
मुन्नी बेगम...
Thursday, December 18, 2008
मैं जिस दिन भुला दूँ तेरा प्यार दिल से...!!!
वो दिन आखरी हो मेरी ज़िन्दगी का...
ये आँखें उसी रात हो जाए अंधी...
जो देखे तेरे सिवा सपना किसी का...
मुझे अपने दिलसे उतरने न देना...
में खुसबू हूँ मुझे बिखरने न देगा...
रहे तू हमेशा इन बाजूओं में...
न टूटे ये बंधन कभी दोस्ती का...
मेरी धडकनों में मोहब्बत है तेरी...
मेरी ज़िन्दगी अब अमानत है तेरी...
तमन्ना है इन रास्तो पे चले तुम...
निशाँ हो वहां मेरी बन्दिगी का...
मैं जिस दिन भुला दूँ तेरा प्यार दिल से...
वोह दिन आखरी हो मेरी जिंदगी का ...
खुशबू..(१९७९)
Wednesday, December 17, 2008
जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं !!!
जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ...
में तो मर के मेरी जान तुझे चाहूंगा...
तू मिला है तो ये एहसास हुआ ही मुझको...
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोडी है...
एक जरा सा गम-ऐ-दौरा है जिसपे हक है ...
मैंने वोह साँस भी तेरी लिए रख छोडी है...
तुझपे हो जाऊँगा कुर्बान तुझे चाहूंगा...
में तो मर के भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
अपने जज्बात में नगमात रचाने के लिए...
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे...
में तस्सवुर भी जुदाई का कैसे करू..
मैंने किस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे...
प्यार का निगहबान बनके तुझे चाहूंगा...
में तो मर के भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ...
साहिर लुधियानवी...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...!!!
अल्फाजो में जो न समाया जा सके ...
गीतों में जो न गुनगुनाया जा सके...
दिल से जो न जुबांपे लाया जा सके...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
जिसकी अधूरी सी प्यास नजरो में रहे...
जिसकी दिलकश मिठास अधरों में रहे...
जिसकी हर अदा ख़ास इन सजरो में रहे...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
जो इन नसों में लहू बन के उतर जाए...
जो हर ख्याल-ओ-खाब में सवर जाए...
जो मेरे हर जर्रे में खुशबू सा ठहर जाए...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ...
जिसको कोई नाम भी देने से डरती हूँ...
जिसके मदहोश आगोश में सवरती हूँ....
जिसके लिए जीती हूँ उसपे ही मरती हूँ...
उस खूबसूरत एहसास को बयाँ कैसे करुँ....
भावार्थ...
Tuesday, December 16, 2008
भूलने वाले से कोई कह दे जरा...
इस तरह याद आने से क्या फायदा ...
चार तिनके जला के क्या मिल गया...
मिट न सके जहाँ से मेरे निशाँ...
मुझपे बिजलियाँ गिराओ तो सही...
आशियाने पे गिराने से क्या फायदा...
पहले दिल को बुरे से कर पाक तुम...
फ़िर कुलु सी यकिदत से कर जुस्तजू...
ऐसे सजदे से अल्लाह मिलता नहीं...
हर जगह सर झुकने से क्या फायदा...
तुमन मूसा को नाहक तकलीफ दी...
लुफ्त आता अगर याद करती हुई...
जिनकी आँखों ने ताबे नजारा न हो...
उनको जलवा दिखने से क्या फायदा...
मुन्नी बेगम...
Monday, December 15, 2008
ये रिश्ते निभाने वाले !!!
क्यों मुस्कुराना नहीं चाहते ये रिश्ते निभाने वाले...
क्यों ठहरना नहीं चाहते ये दूर तक जाने वाले...
जकड़ते वादों और झूठी वफाओं में है उनकी जिंदगी...
क्यों संभालना नहीं चाहते ये गम से बिखरने वाले...
तीरगी जीते हैं पर लम्हे भर की रौशनी से डरते हैं...
क्यों एक दिया नहीं जलाते अमावस में रहने वाले...
तन्हाई ओढे शब् में अश्क मय प्यालो से बहते हैं ...
क्यों दोस्ती नहीं आजमाते ये 'दोस्त' कहने वाले...
खौफ ज़माने का नहीं ख़ुद का बनाया तिलिस्म है...
क्यों मुझसे मिल नहीं जाते मुझे अपना कहने वाले...
उनकी जिद है राज रखना दिल में इक बेवफाई होगी ...
क्यों तमन्ना जी नही जाते अपने जी को मसलने वाले...
भावार्थ...
तू मेरी ज़िन्दगी है
तू ही प्यार तू ही चाहत तू ही बन्दिगी है...
जब तक न देखूं तुझे सूरज न निकले...
जुल्फों के साए साये महताब उभरे ...
तू ही दिल का होश साथी तू ही बेखुदी है...
मेरे लबो पे तेरे नगमे मिलेंगे...
आँहों में मेरी तेरे जलवे मिलेंगे...
मेरे दिल में तू ही तू है तेरी रौशनी है...
छोड़ के दुनिया तुझको अपना बना लूँ...
सब से छुपा के तुझको दल में बसा लूँ...
तू ही मरी पहली ख्वाइश तू ही आखरी है...
तू मेरी जिंदगी है तू मेरी हर खुशी है...
तू ही प्यार तू ही चाहत तू ही बन्दिगी है..
क़तील शिफई...
Sunday, December 14, 2008
हाँ में वही हूँ !!
क्यों मुझे तुम अनजान नज़रो से देखती हो ...
में वही हूँ जिसे कभी तुमने अपना साया कहा था...
अपने आगोश की की मचलती सी तमन्ना...
अपने दिल की आवाज़,अपना शरमाया कहा था...
हाँ में वही हूँ !! हाँ मैं वही हूँ !! हाँ में वही हूँ !!
उन दिनों जब तन्हाई की रानाई मुझे भाने लगी...
जिंदगी शायरी नज़मो में उभर के आने लगी...
हो गया एक रूह का मेरी रूह पे ग्रहण शायद ...
मेरी हर शय कागज़ पे हर्फ बन के छाने लगी...
कुछ रोज तलक हकीकत उभरने की कोशिश में...
मुझे और मेरे सोये जमीर को हिलाने लगी...
दुनिया के बेरुख लोगो के सजे तिलिस्म में ...
समाज की झूठी शाहान्शाई से डराने लगी...
ख़ुद को मैंने पहले ख़ुद से आजाद कर ...
अपनी तमन्नाओ को मुफ्त में नीलम किया...
हर भूख और हर प्यास के जोर को ...
अपने वजूद को उनकी जंजीर से बाहर किया...
हर अल्फाज़ तब मेरा आईना बन बन के गिरा...
मेरी हर एक बात लोगो के दिल पे लगने लगी...
मेरे अफकारो में सच की सूरत कुछ ऐसी बनी...
झूठ की हस्ती लोगो को जेहेनो में खलने लगी ...
मेरा आजाद जज्बा दुनिया के खाके से जुदा था
राज शाही बंदर नए नए जाल बुनने लगे...
मेरी आवाज़ को कहीं दफ़न करने की साजिश...
मुझे मेरे सच के आईने से जुदा करने लगे...
लोग मेरी तरफ़ बुरी नज़रें उठाने लगे थे...
मेरी सोच को कठघरे में लाया जाने लगा...
कुछ और जमीर फ़िर से बाज़ार में बिक गए...
मेरी नज़मो को नए अंदाज़ से पढ़ा जाने लगा...
कुछ ज्यादा से पढ़े लोगो ने मुझे गुनेहगार कहा...
मुझपे पिंजरे से पाखी के परवाज़ का जुर्म था...
झूठ सच की शक्ल में तैरने लगा बंद कमरे में...
मुझपे सोये हुए लोगो को जगा देने का जुर्म था...
झूठ जीता झूठे लोगो की नज़रों में उस रोज भी...
सच को कुछ और दिन सकूत के नसीब हो गए...
कठघरे से निकल कर सच ने जंजीर पहनी...
जमीर के सौदे फ़िर एक बार बाज़ार में हो गए......
मेरी तमन्नाओं में कुछ एक सिलवटें बन गई...
मेरे ख्वाब सिकुड़ के कहीं कौन में जा बैठे...
अरमान उजडे हुए गुलजार की तरफ़ बढ़ गए ...
मेरे सपने मुझसे मुँह फेर कहीं दूर जा बैठे...
नहीं चाहिए मुझे चलते फिरते मुर्दा लोग...
नहीं चाहिए उनकी बिगड़ी सी तसवीरें बनी...
नहीं चाहिए बाज़ार का उठता हुआ शोर...
नहीं चाहिए मिटी हस्ती के वोग लोग धनी...
दुल्हन सी सजी दुनिया से बेहतर तो तेरे साए का वीराना...
झूठी सी दिलचस्प कहानी से बेहतर तो तेरा अफसाना...
शोखियों और रानायियो से कहीं बेहतर तेरी सादगी...
हासिल को दौड़ती जिंदगी से अच्छा दो पल का थमजाना...
फ़िर क्यों मुझे तुम अनजान नज़रो से देखती हो ...
में वही हूँ जिसे कभी तुमने अपना साया कहा था...
अपने आगोश की की मचलती सी तमन्ना...
अपने दिल की आवाज़,अपना शरमाया कहा था...
हाँ में वही हूँ !! हाँ मैं वही हूँ !! हाँ में वही हूँ !!
भावार्थ...
Saturday, December 13, 2008
की आज तुम शायद आओगी...!!!
की आज तुम शायद आओगी...
बिल्कुल पहली मुलाकात के तरह...
मुझे लगा वो वाकया होगा कि...
तुम उस रोज भी देर से आओगी...
घुसते ही आस्तां पे लड़खडाओगी ...
कुछ पल को तुम्हें होश न रहेगा...
फ़िर तुम मेरे आगोश में गिर जाओगी...
पर आज कल दोहराया नहीं...
मेरे बेइन्तेआह इंतज़ार का क्या ...
मिला मुझे कोई सरमाया नहीं...
यही सोच में उस रास्ते पे गया...
कि शायद आज तुम आओगी...
समय अपनी धुन में गुम था ...
और मैं तेरी याद मैं बेसुध था...
तेरी एहसास को ज़र्रे में संजोये...
रास्ता आज भी मुझे रुलाता है...
में तेरी यादो के साथ चल निकला...
कि जेहेन के रास्ते ही सही ...
शायद तू आए और फ़िर मुस्कुराए...
पर रास्ते न तुझसे पहले मजिल पायी...
कुछ एक आंसू गिरे पर तू नहीं आई...
यही सोच एक कब्र पे जा बैठा...
कि शायद आज तुम आओगी...
लोग कहते हैं कि तुम यहीं हो...
न जाने कितनी सालों से यहीं हो ...
ख़ुद के इंतज़ार को इब्तिदा दी मैंने...
जिंदगी को तेरी इन्तेआह दी मैंने...
तनहा अँधेरा शाम को ढलने लगा...
मेरा हर खाब जैसे बिखरने लगा...
फ़िर तुम हवा सी बन उभरी...
आगोश में लेने को जी चाह...
पर तुम आज फ़िर नहीं आई...
यही सोच में तेरी तस्वीर ले बैठा हूं...
शायद खुदा का कोई मोजजा हो...
और तुम इस कैद से बहर आओ...
और मेरी बाहों में गुम हो जाओ...
भावार्थ...
Thursday, December 11, 2008
यह कहानी फ़िर सही !!!
किसने तोडा दिल हमारा यह कहानी फ़िर सही...
दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने...
नाम आएगा तुम्हारा ये कहानी फ़िर सही...
नफरतों के तीर खा कर दोस्तों के शहर में...
हमने किस किस को पुकारा ये कहानी फ़िर सही...
क्या बताएं प्यार की बाज़ी वफ़ा की राह में...
कौन जीता कौन हारा यह कहानी फ़िर सही ...
गुलाम अली ग़ज़ल...
कुछ भी याद नहीं कर पा रहा हूँ...
ये अजनबी लोग मुझे अपना कहते हैं...
पर तेरी याद में मेरी हस्ती सिमट जाती है...
में चाहता हूँ की इनको कुछ समझ सकूं...
हर बार उनकी याद जेहेन से मिट जाती है...
जागते ही जीने का एहसास होता है मुझे...
कहाँ नींद सुला गई मुझे याद नहीं कुछ भी...
तेरी हर एक अदा तैरती है आँखों में यु तो...
कोई सूरत कोई एहसास याद नहीं कुछ भी....
तुझे कितनी ही बार निकला है जेहेन से...
देखो ये भी मैं अब याद नहीं कर पा रहा हूँ...
हर बार तू और खालीपन बचते हैं मुझमें...
इसके सिवा कुछ भी याद नहीं कर पा रहा हूँ...
निशाँ ढूढता हूँ कुछ एक कदम चलने को ...
हर बार तेरी यादें झट से उभर आती है...
फ़िर वही तेरी यादों मैं लिपटे कुछ लम्हे ...
हर चीज़ मेरी तेरी उन यादों पे रुक जाती है...
किसको सोचूँ जब किसी की पहचान नहीं रही...
किसको बोलूँ जेहेन मैं जब कोई बात नहीं....
किसको देखू जब नजरो मैं सिर्फ़ वहम रहता है...
किसको जियूं जब कोई याद ही मेरे साथ नहीं...
तू है बस तू है अफसाना भी तू हकीकत भी तू...
कुछ और नहीं एहसासों में भी, यादो में भी...
तन्हाई भी तेरी यादो की वजह से नहीं आती...
दुआओं में भी नहीं कोई, मेरी फरियादों में भी...
भावार्थ...
Wednesday, December 10, 2008
चाहत नही मुझको
सेहरा पे तपकर बारिश से भी राहत नहीं मुझको...
तड़पती रही रूह जिस हुस्न-ऐ-यजदान के लिए...
खुदा के नूर से भी अंधियारे में उजाला नहीं मुझको...
हुस्न-ऐ-रानाई की तमन्ना लिए मैं जिया जिसकी...
उसके आगोश में आकर भी पर सुकून नहीं मुझको...
तख्त-ओ-ताज का खवाब लहू बहाकर हासिल हुआ...
रहनुमा-ऐ-मुल्क बनके भी अब जूनून नहीं मुझको...
जिंदगी देगी मुझे मेरे जीने का सिला शायद कोई...
ये उम्र जी भी ली मगर जीने से कुछ हासिल नहीं मुझको...
भावार्थ...
Tuesday, December 9, 2008
डर के जीना मौत से कहीं बदतर है...!!!
डर डर के जीना भी यहाँ एक पल की मौत से कहीं बदतर है...
लम्हे दो लम्हे की तीरगी मिले तो अच्छा है...
कसक-ऐ-जेहेन भी सीने में धसी गोलियों से कहीं बदतर है...
खौफ के ये सजीले उफक छट जाएँ तो अच्छा है...
रानाई-ऐ-सुकूत भी यहाँ बेसुध धमाको से कहीं बदतर है...
लौट आऊं मैं जो खामोश साहिल पे तो अच्छा है...
थमा सा दरिया भी यहाँ उफनते समंदर से कहीं बदतर है...
अजनबी मुल्क में वफ़ा न करो तो अच्छा है...
जजा-ऐ-दोस्ती भी यहाँ सजा-ऐ-दुश्मनी से कहीं बदतर है...
जिंदगी तुझसे जो कुछ भी नहीं माँगा तो अच्छा है...
तामीर-ऐ-खाब भी तेरे साए में हकीकत से कहीं बदतर है...
बेलगाम मुल्क अब 'आवारा' बन जाए तो अच्छा है...
तौकीर-ऐ-रहनुमा भी यहाँ तजलील-ऐ-आम से कहीं बदतर है...
भावार्थ...
एक और सुबह !!!
उस बूढे ने आज सुबह को झमायी लेते हुए देखा...
की जब सूरज ने आँखें खोली तो सड़के तनहा थी...
बेसुध रात मद्धम उजाले मैं उबासी ले रही थी...
हवा अंधेरे मैं से छन-छन के हलकी हो गई थी...
तभी किसी बच्चे ने दरीचे से आवाज दी...
बाबा तुम फ़िर आ गए कूड़ा उठाने...
एक धमाका और खौफ हावी हो गया...
चीखो का जैसे पुलिंदा खुल गया था...
लहू और बे-इन्तहा कराहें बह निकली...
खामोशी न जाने कहाँ गुम हो गई थी...
दरीचे तक खौफ के साए पहुंचे...
बच्चे ने उस बूढे की परछाई को बिखरते देखा...
एक और जिंदगी को धमाका लील गया ...
कूडे का बोरा उसकी परछाई के उपर पड़ा था...
और जर्द कागज़ उसके उपर मंडरा रहे था...
सुबह उठ गई ,उसकी नींद गायब थी...
रात जाग कर उल्टे पैर लौट गई...
हवा बारूद से भरी भरी हो गई फ़िर से...
सौ साल से जिंदगी की पगडण्डी पे चलते चलते...
वो गुमनाम शायर भी आख़िर सो गया...
भावार्थ...
Monday, December 8, 2008
मेरे बच्चो में खौफ साँस लेता है !!!
आज बच्चो में खौफ साँस लेता है...
तीरगी उनके जेहेन में बसती है ...
दर्द के गुबार बन के युही उड़ते हैं...
बैचैनी हवा में घुल कर बहती है...
हिन्दुस्ता की सरजमी में जन्मे है जो...
स्कूलों के रास्तो पे भी सहमे हैं जो...
खेलते कूदते नहीं घरो में जमे हैं जो...
दिल की बात बोलने से भी डरे-थमे हैं जो...
मौत की सूरत नजरो में छुपा चुके हैं ये...
जिंदगी जीने के खाके बना चुके हैं ये...
लहू के रंग को सोच में सजा चुके हैं ये...
टूटी शख्शियत को अब अपना चुके हैं...
आएगा कल भी इनकी जवानी के साथ...
कहर बरप जायेगा नापाक मंसूबो के साथ...
छायेगा मातम भी कहीं धमाको के साथ...
उजड़ जायेगा मौसम भी चीखो के साथ...
मस्जिद और मन्दिर की तकरार देख चुके हैं...
ट्रेनों में लकड़ी सी जलती हुई लाश देख चुके हैं ...
मांस के चीथडो से सना हुआ बाज़ार देख चुके हैं...
सोने के चिडिया का ऐसा भी बदहाल देख चुके हैं...
भावार्थ...
Sunday, December 7, 2008
मेरी दास्ताँ-ऐ-हसरत !!!
मुझे आजमाने वाले मुझे आजमां के रोये...
तेरी तज अदायिओं पे तेरी बेवाफयियो पे...
कभी सर झुका के रोये कभी मुँह छुपा के रोये...
जो सुनाई अंजुमन ने शब्-ऐ-गम की आप बीती...
क्यों रो रो कर मुस्कुराये कई मुस्कुरा के रोये...
कोई ऐसा अहल-ऐ-दिल हो जो फ़साने मोहब्बत...
मैं उसे सुना के रोऊँ वो मुझे सुना के रोये...
में हूँ बे-वतन मुसाफिर मेरा नाम है बेकसी ...
मेरा कौन है जहाँ में जो गले लगा के रोये...
मेरे पास से गुज़र कर मेरी बात तक न पूछी...
मैं ये कसी मान जाऊं की वो दूर जा कर रोये...
कभी मुझसे रूठ कर वो जो मिले थे रास्ते मैं...
मैं उन्हें मना कर रोया वो मुझे मना कर रोये...
पाकिस्तानी शायर...
(sung by Aziz Mian)
http://in.youtube.com/watch?v=HvBHhErzW3U&feature=related
ऐ मेरे हमनशी !!!
इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं...
बात होती गुलो की तो सह लेते हम...
अब काँटों पे भी हक हमारा नहीं...
दी सदा दौर पे और कभी तुद पे...
किस जगह तुमको मैंने पुकारा नहीं...
ठोकरे खिलाने से क्या फायदा...
साफ़ कह दो की मिलना गवारा नहीं...
गुल्सिता को लहू की जरूरत पड़ी...
सबसे पहले ये गर्दन हमारी कटी...
फ़िर भी कहते हैं मुझसे ये अहल-ऐ-चमन...
ये चमन है हमारा तुम्हार नहीं...
जालिमो अपनी किस्मत प नाजा न हो...
दौर बदलेगा ये वक्त की बात है...
वो यकीनन सुनेगा सदायें मेरी...
क्या तुम्हारा खुदा है हमारा नहीं...
आज आए हो तुम कल चले जाओगे...
ये मोहब्बत को अपनी गवारा नहीं...
उम्र भर का सहारा बनो तो बनो...
दो घड़ी का सहारा सहारा नहीं...
अपनी जुल्फों को रुख से हटा लीजिये...
मेरा जोख-ऐ-नज़र आजमा लीजिये...
आज घर से चला हूँ यही सोच कर...
या तो नज़रे नहीं या फ़िर नज़ारा नहीं...
तस्सवुर खानुम...
Saturday, December 6, 2008
जिंदगी मेरी घर बनाने में निकल गई !!!
क़र्ज़ की किश्तें चुकाने में निकल गई...
दो चार लम्हे भी ये लब मुस्कुरा न सके ...
बोझ तले हसीं भी आंखों से निकल गई...
दिन पसीने में शाम भीड़ में गुम हो गई ...
तामीर के खाब में सारी रात निकल गई...
देह ने पुराने कपड़ो की शिकायत जो की...
आह मेरी गुल्लक के गले से निकल गई...
हवेलियों में बचपन जो गुज़रा हमारा ...
जवानी दो कमरे बनाने में निकल गई...
ज़िन्दगी के खाब जो गाँव में देखे मैंने...
जिंदगानी शहर की भीड़ में निकल गई...
अपनी छत की चाहत रही मुझे उम्र भर...
जब क़र्ज़ चुका तो मेरी जा निकल गई...
जिंदगी मेरी घर बनाने में निकल गई...
कर्ज की किश्तें चुकाने में निकल गई...
भावार्थ...
Friday, December 5, 2008
कांच के मगरूर ख्वाब मेरे !!!
लरजते हैं मगर टूटते नहीं ...
जुदा जुदा से हैं अरमान मेरे...
रुलाते हैं मगर छूटते नहीं...
बनी राहो पे चलना नहीं...
पहचान बनाने का जूनून है...
किस्मत ख़ुद बनानी है...बेचैन रूह को कहाँ सुकून है...
रास्ते ये आसन नहीं...
कारवां बदलने लगे हैं...
होसले भी कम नहीं...
थक कर भी चलने लगे हैं...
डराने लगी है खामोशियाँ...
जब भी मैं साँस लेता हूँ...
रुलाने लगी हैं तल्खियाँ...
जब भी तेरा नाम लेता हूँ...
भावार्थ...
Thursday, December 4, 2008
बहुत अच्छा किया
बाद लंबे वक्त के भाये , बहुत अच्छा किया।
हो गए थे गुम की अपनी ही सुरंगों-बीच हम,
खोजकर हमको यहाँ लाये ,बहुत अच्छा किया।
गरजने सुनता रहा कब से तुम्हारी दूर से,
आज जल बनकर यहाँ छाये बहुत अच्छा किया।
खो गया था यार तुम पर सारे शिकवों का असर
आज अरसे बाद शर्माए बहुत अच्छा किया।
नदी , नाले , पर्वतों ने रास्ते रोके बहूत ,
भूल तुम हमको नही पाये बहुत अच्छा किया।
Dr.Ramdarash Mishr.
Wednesday, December 3, 2008
कोई दर्पण नही है.
मोहब्बत कर बैठी वो !!!
मेरी मदहोश तन्हाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
घुमते रहते हैं ख्याल मेरे जेहेन मैं धुएँ की तरह...
टूटते रहते हैं हर्फ़ मेरी कलम से खाबो की तरह...
रूठते रहते हैं मुझसे कागज़ छोटे बच्चो की तरह...
मेरी बेरुख आवारगी से मोहब्बत कर बैठी वो...
मेरी मदहोश तन्हाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
कब कहाँ कौन सी बात पे रुक जाऊं नहीं पता...
कौन से ख़यालात पे कुछ लिख जाऊं नहीं पता...
कहाँ अल्फाजों मैं यु ही उलझ जाऊं नहीं पता...
मेरी डूबती शख्शियत से मोहब्बत कर बैठी वो ...
मेरी मदहोश तन्हाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
मैं कुछ अधलिखे जर्द पन्नो के सिवा कुछ भी नहीं...
मैं इन बिखरे हुए एहसासों के सिवा कुछ भी नहीं...
मैं इन उड़ते हुए दीवाने पत्तो के सिवा कुछ भी नहीं...
मेरी अधूरी सी तस्वीर से मोहब्बत कर बैठी वो...
मेरी मदहोश तन्हाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
मेरी शायरी-ए-रानाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
मेरी मदहोश तन्हाई से मोहब्बत कर बैठी वो...
भावार्थ...
जो ग़म से हार जाओगे,..!!!
जो ग़म से हार जाओगे, तो किस तरह निभाओगे...
खुशी मिले हमें के ग़म, जो होगा बाँट लेंगे...
हम्मुझे तुम आजमाओ तो ज़रा नज़र मिलाओ तो...
ये जिस्म दूर हैं मगर, दिलों में फासला नहीं...
जहाँ में ऐसा कौन है, कोई जिसको ग़म मिला नहीं...
तुम्हारे प्यार कि क़सम, तुम्हारा ग़म है मेरा ग़म...
न यूं बुझे बुझे रहो, जो दिल कि बात है कहो...
जो मुझे से भी छुपाओगे, तो फिर किसे बताओगे ...
मैं कोई गैर तो नहीं, दिलाऊं किस तरह यकीन...
कोई तुमसे मैं जुदा नहीं, मुझे से तुम जुदा नहीं...
साहिर लुधियानवी...
आज फ़िर वही अपनों की कमी...!!!
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
मेरा तनहा आगोश,मेरी तन्हा बाहें...
मेरा तनहा ख्वाब, मेरी तनहा राहें...
तन्हा है आसमान तन्हा है ये जमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
आज फ़िर वही अपनों की कमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
रिश्तो मैं पली जिंदगी अकेली है...
क्या चाहिए मुझे ये भी एक पहेली है...
में गुमशुदा हूँ ख़ुद में कहीं सहमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
आज फ़िर वही अपनों की कमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
याद आते ही ये अश्क बह जाते हैं...
उनके न होने के निशाँ रह जाते हैं...
मुझे सुलाने को रह गई ये रात थमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
आज फ़िर वही अपनों की कमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
न हवा का रंग सुहाए न खिजा का...
न बूंदों का संग सुहाए न फिजा का...
आज फ़िर वही एहसासों की कमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
आज फ़िर वही अपनों की कमी...
आज फ़िर वही पलकों की नमी...
भावार्थ...
(Dedicated to one of my friends !!!)
Tuesday, December 2, 2008
सोनिये तू !!!
मेरी जिंदडी का सरमाया तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
सोनिये तू !!! सोनिये तू !!!
फिजा में बिखरी ताजगी है तू...
हवाओ में सिमटी सादगी है तू ...
फलक तक सजी बहार तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
मेरी जिंदडी का सरमाया तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
सोनिये तू !!! सोनिये तू !!!
दिल से उठी एक मीठी आवाज़ है तू...
साँसों से उठाये झंकार वो साज है तू...
गीत सा बना मेरा अफ़कार तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
मेरी जिंदडी का सरमाया तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
सोनिये तू !!! सोनिये तू !!!
मेरे लिए तो खुदा की खुदाई है तू...
मेरी तमन्नाओ की परछाई है तू...
कोरे कागज़ पे रंगों की खिजा तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
मेरी जिंदडी का सरमाया तू है सोनिये...
मेरी मदहोशी का वो राज तू है सोनिये...
सोनिये तू !!! सोनिये तू !!!
भावार्थ...
Monday, December 1, 2008
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना
जिंदगी तल्ख़ सही, ज़हर सही, सम ही सही...
दर्द-ओ-आजार सही , जब्र सही , ग़म ही सही...
लेकिन इस दर्द-ओ-ग़म-ओ-जब्र की वुसत को तो देख...
ज़ुल्म की छाँव में दम तोरती खल्कात को तो देख...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना...
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड...
जलसा-गाहों में ये वहशत-ज़दः सहमे अन्बोह...
रहगुज़ारों पे फलाकत ज़दः लोगों के गिरोह...
भूखे और प्यास से पाज़-मुर्दः सियाह-फाम ज़मीन...
तीरह-ओ-तार मकान, मुफलिस-ओ-बीमार मकीन ...
नौ’ऐ-इंसान में ये सरमाया-ओ-मेहनत का ताजाद...
अमन-ओ-तहजीब के परचम टेल कौमों का फसाद...
हर तरफ़ आतिश-ओ-आहन का ये सैलाब-ऐ-अजीम...
नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम...
लहलहाते हुए खेतों पे जवानी का समान ...
और दहकान के छप्पर में न बत्ती न धुंआ...
ये फलक-बोस मिलें, दिलकश-ओ-सीमीं बाज़ार...
ये घलाज़त ये झपट_ते हुए भूखे बाज़ार...
दूर साहिल पे वो शफ्फाफ मकानों की कतार...
सरसराते हुए परदों में सिमट_ते गुलज़ार...
डर-ओ-दीवार पे अनवार का सैलाब रवां...
जैसे इक शायर-ऐ-मदहोश के ख़्वाबों का जहाँ...
ये सभी क्यों है ये क्या है, मुझे कुछ सोचने दे...
कौन इंसान का खुदा है, मुझे कुछ सोचने दे ...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना ...
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेर...
साहिर लुधियानवी...
Sunday, November 30, 2008
मैं ने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे... !!!
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ...
आज दूकान पे नीलाम उठेगा उनका...
तू ने जिन गीतों पे रखी थी मुहब्बत कि असास...
आज चांदी के तराजू में तुलेगी हर चीज़...
मेरे अफकार, मेरी शायरी मेरा अहसास...
जो तेरी जात से मंसूब थे उन गीतों को...
मुफलिसी जींस बना ने पे उतर आयी है...
भूक तेरे रुख-ऐ-रंगीन के फसानों के...
‘एवाज्चंद अश’ये-ऐ-ज़रूरत की तमन्नाई है...
देख इस ‘अर्सागाह-ऐ-महनत-ओ-सरमाया में...
मेरे नग्मे भी मिरे पास नहीं रह सकते...
तेरे जलवे किसी ज़रदार कि मीरास सही...
तेरे खाके भी मेरे पास नहीं रह सकते...
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया होऊं ...
मैं ने जो गीत तेरे प्यार कि खातिर लिक्खे...
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 29, 2008
ताज पे कुछ कबूतर !!!
दहशत में संदेश-ऐ-अमन वो पढने आए...
जिस ताज के सामने चुन्गते हैं दाना जो...
उसकी तामीर को सजदा करने आए...
अरब समंदर जहाँ छूता है शहर को...
जख्मी किनारे को मलहम मलने आए...
संग जिसके साख सा एहसास देते हैं ...
उस इमारत पे सब आंसू बहाने आये...
रहनुमा-ऐ-मुल्क सियासत में गुम रहे...
सबसे पहले शहीदों पे गुल चढाने आए...
कुछ उत्तर-मराठी का भेद करने में गुम रहे ...
वो इबादत-ऐ-जौहर को दिया जलाने आए...
शहर जो जिंदगी के मायने बदल चुका हो ...
जिंदगानी में पहले सा जोश भरने आए...
ताज पे कुछ कबूतर आज उड़ने आए...दशहत में संदेश-ऐ-अमन वो पढने आए...
भावार्थ...
Thursday, November 27, 2008
मौत आज भी संजीदा है !!!
आज फ़िर से खौफ का सन्नाटा आ गया...
कुछ चीखे उन रोंधे हुए गले से फट पड़ी...
मातम मुस्कुराते हुए हर पहलू पे छा गया...
जेहेन का लहू संग बन गया आज फ़िर...
रगों का लहू चढ़ के आंखों में उबल रहा है...
कुछ लहू मोम सा जम गया सड़को पे युही ....
कितना ही लहू लहू बहाने को मचल रहा है....
सिसकियाँ लबो पे गीला एहसास ले आई ...
मौत आख़िर आज भी उतनी ही संजीदा है...
मुरझाये हुए है चेहरे जाने वाली की यादों में...
आँसू का दरिया मौत पर आज भी शर्मिंदा हैं ....
कितने रिश्ते कांच से बिखर गए उस रोज...
ढ़य गए आशियाने के तिनके एक एक कर...
सिमट गए होश-ओ-ख्याल सीले आगोश में...
निशाँ बन गई जीती हकीकत एक एक कर...
हादसे खौफ के बादल हटने नहीं देते जेहेन से...
आंसू बह बह के गिरते हैं सहमी हुई आँखों से...
जलती हुई चिताए रूहे जलती है अपनों की...
तपती रहती हैं जिंदगानियां धधकती राखो से...
तुम मर चुके हो लोग यही एहसास दिलाते हैं...
ये जिद्दी दिल है जो तुमको जिन्दा रखे हुए है...
कान सुनते नहीं ,नज़रे देखती नहीं लोगो को...
तुम और तुम्हारी यादों में ख़ुद को समेटे हुए हैं...
भावार्थ...
Wednesday, November 26, 2008
काश मैं सीख जाऊं !!!
बातें झूठी मूटी सी बुनना सीख जाऊं...
सीख जाऊं बेहूदगी पे हसना मुस्कुराना ...
सच को मरोड़ पेश करना सीख जाऊं...
फीकी बातों को दिलचस्प बनाना सीख जाऊं ...
ओछी धुनों को हरपल गुनगुनाना सीख जाऊं...
सीख जाऊं इन बकवासों पे कहकहे लगाना...
दूसरो के गमो पर झूठी आहें भरना सीख जाऊं...
बेढंग तरीको से ख़ुद सवरना सीख जाऊं...
दे कर किसी को वादा मुकरना सीख जाऊं...
सीख जाऊं शतरंज के सभी मोहरे चलना ...
उड़ते हुए पाखी के पर कुतरना सीख जाऊं...
दिल बिना मिलाये गले लगाना सीख जाऊं...
हर बात पे उनकी हाँ कहना सीख जाऊं...
कहते हैं वो सीख जाऊं में दुनिया के तरीके ...
जिंदगी को पल पल मार जीना सीख जाऊं...
भावार्थ...
Tuesday, November 25, 2008
नहीं चाहिए मुझे !!!
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
झूठे रिश्तो में जीती नाग़बार जिंदगी...
टुकडो में बिखरी ये बेशुमार जिंदगी...
अपनों में सिमटी ये बेकरार जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
ढलती शाम के साथ पनपती जिंदगी...
उगती सुबह के साथ थमती जिंदगी...
बे-समय बनती और मिटती जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
मयकदों में उलझी पड़ी बेहोश जिंदगी...
खरीदी हुई बाँहों में पड़ी मदहोश जिंदगी...
बाज़ार-ऐ-जमीर में खड़ी खामोश जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
ख्वाइशों को जूनून में ढालती जिंदगी...
ख़ुद को बस खुदी से संभालती जिंदगी...
तन्हाईओं में डर के ये भागती जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
हकीकत जानकर भी अनजान जिंदगी...
सरहदे जीतने को ये लहूलुहान जिंदगी...
जीतकर भी उसी जीत पे हैरान जिंदगी...
नहीं चाहिए मुझे ! नहीं चाहिए मुझे !
भावार्थ...
Monday, November 24, 2008
हमको ख़ुद ही से आगे जाना है...!!!
जीत का नया आयाम बनाना है...
सबकी निगाह बस फलक तक है...
उनके पार है मंजिल उसे पाना है...
ये मुश्किलें आएँगी और जाएँगी...
इरादों को मुश्किलों से न घबराना है...
कोशिशों में न तेरा जूनून कम हो...
हौसलों की सर-बुलंदी को पाना है...
तोहमते लगे तो समझ तरकी पर है तू...
अपनी धुन में बस युही चलते जाना है...
चल पड़े जो तेरे हौसलों का कारवाँ...
हर मंजिल को तेरे कदमो पे आना है...
हमको ख़ुद ही से आगे जाना है...
जीत का नया आयाम बनाना है...
भावार्थ...
Sunday, November 23, 2008
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
ये कूचे ये नीलम घर दिलकशी के...
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के...
कहाँ हैं कहाँ है मुह्जिस खुदी के..
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं कहाँ है कहाँ है ...
ये पुरपेच गलियां ये बदनाम बाज़ार...
ये गुमनाम राही ये सिक्को की झंकार...
ये इस्मत के सौदे ये सौदों पे तकरार....
जिन्हें नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं वो कहाँ है कहाँ है ...
ये सदियों से बेखौफ सहमी सी गलियां...
ये मसली हुई अद्खिली जर कलियन...
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ ...
जिनको नाज़ है हिंद पे...
वो कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं ?
वोह ujale दरीचो में पायल की चन चन..
थकी हारी साँसों पे तब्लो की ठन ठन ...
ये बेरूह कमरों में खांसी की आवाज़...
जिहें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है...
ये फूलो की गजरे वो पीको के छींटे...
ये बेबाक नज़ारे ये गुस्ताख फितर...
ये ठलके बदन और बीमार चहेरे
जिन्हें नाज़ हैं हिंद पे वो...
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ है...
यहाँ पीर भी आ चुके और जवान भी...
नौ मंद बेटे और अब्बा मियां भी...
य बीवी है बेटी है और माँ bhii...
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है ...
मदद चाहती है ये हवा की बेटी॥
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी...
पागाम्बर की उम्मत जुलेह्खन की बेटी.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ है...
जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ॥
ये कूचे ,यह गलियां ये मंजर दिखाओ...
जिन्हें नाज़ है हिंद उनको लाओ...
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो...
कहाँ है कहाँ है कहाँ हैं...
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 22, 2008
ठुकरा के पी गया...
इस दिल की बेबसी पे घबरा के पी गया...
ठुकरा रहा था मुझे बड़ी बेरुखी से जहाँ...
में आज सब जहाँ को ठुकरा के पी गया...
ये हँसते हुए फूल ये महका हुआ गुलशन...
ये रंग में और ये नूर में डूबी हुई राहें...
ये फूलो का रस पिके मचलते हुए भंवरे...
में दू भी तो दू भी क्या तुम्हे शोख नज़रो...
ले दे कर मेरे पास कुछ आँसू हैं कुछ आहें हैं...
साहिर लुधियानवी...
Thursday, November 20, 2008
करार आए !!!
तड़पते जेहेन को मेरे जेहनात मिले तो करार आए...
मुझे पपीहे को बूंदों का तस्वीर मिले तो करार आए...
सुकून-ऐ-हयात ढूढ़ते हैं हर एक पल में बिखरने वाले...
सुकूत-ऐ-शब् ढूढ़ते हैं इन उजालों के नशे में डूबने वाले...
हुस्न-ऐ-याज़दान ढूढ़ते हैं ये हुस्न-ऐ-बुता पूजने वाले...
आवारा तलाश को मेरी राह मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
यादें कुछ एक धुंधली तस्वीर के सिवा कुछ भी नहीं ...
रिश्ते कुछ आहन जंजीरों के सिवा कुछ भी नहीं...
किस्मत कुछ खिची लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं...
हकीकत कुछ यु बन सवर के मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
उमड़ती पतंग की परवाज़ बस आसमान भर उड़ने तक है ...
चढ़ती मय की दरकार बस छुपे अरमान उगलने तक है ...
बढती जफा की बद-हालत बस लहू राहो पे बिखरने तक है...
काबू मुझे ख़ुद के जज्बात पर मिले तो करार आए..
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
मेरे मुल्क के अमीर हैं जो गम-ऐ-तन्हाई लिए फिरते हैं...
मेरे मुल्क के रंगीन हैं जो खौफ-ऐ-रुसवाई लिए फिरते हैं...
मेरे मुल्क के रहनुमा हैं जो फ़िक्र-ऐ-बादशाही लिए फिरते हैं...
इस मुल्क को मेरे उसकी सर-बुलंदी मिले तो करार आए...
मुझ पपीहे को बूंदों का पयाम मिले तो करार आए...
भावार्थ...
Wednesday, November 19, 2008
दो अजनबी अजनबी रहो पे !!!
एक और निकाह, एक और शादी, एक दास्ताँ पुरानी ...
एक और पाबन्दी, एक और कसक,एक और कहानी ...
कुछ अपना कहने वाले होंगे...
और न जानने वालों की भीड़ आएगी...
कुछ घंटो की रौनक फिजा में...
जिंदगी गुलज़ार सी महक जायेगी...
दो अजनबी अजनबी रहो पे ...
अजनबी अंदाज़ से निकल जायंगे...
बेचैन जिस्म सेहरा से तपते...
कुछ एक पल को गिरी बूंदे पायंगे...
रूह की तासीर ही आज़ादी की है ...
जिमेदारियां बेडियाँ बन लहरायेंगी...
मकसद भी शादी के अजीब से है...
अपने किए पे वो फ़िर पछतायेंगे...
प्यास बुझाने को तो बाज़ार काफ़ी हैं...
बेजार रिश्ते को यु ही ढोने का मतलब क्या है...
तनहाई उस बुढापे की कटेगी कैसे...
दिल लगाने को हस्ती मिटाने का मतलब क्या है...
जो तुमको बनानी हैं खानदान की सीढ़ी ...
मासूम को यु ही मसलने का मतलब क्या है...
हमसफ़र की चाहत जो है भी अगर...
उमीदों के अम्बार लगाने का मतलब क्या है...
जीते जागते हँसते बोलते इंसान को...
रिवाजों को ढोता मजदूर बनाने का मतलब क्या है...
सादगी का तो खुदा का तोहफा है जिसे...
उसे रंगीन चीथडो से सजाने का मतलब क्या है...
खुलकर जीने को बेताब एक और रूह को ...
शादी में मुजस्समे से सजाने का मतलब क्या है...
अग्नि पर लिए गए रूहानी वादों को...
कटघरे में आख़िर घसीटने का मतलब क्या है...
फ़िर कहीं से एक खुदखुशी की खबर...
झूल गई एक और लैला की ख़बर...
दहेज़ को प्रताडित बहु की ख़बर...
तलाक पे आमदा बेगम की ख़बर...
नापाक रिश्तों के बनने की ख़बर...
सालों से बस घुटती रूह की ख़बर...
कमरों से उठती चीखो की खबर ...
कोख में मसले अंश की ख़बर...
अपनों की घिनोनी हरकतों की ख़बर...
इन्तहा इसकदर हो जिस इब्तिदा की...
उस दर्द-शुदा सफर की चाहत क्यो हो ?...
जर्द हो जाएँ जिससे ख़ुद के जमीर के चेहरे...
उस रंगीनियत को ओढ़ने की चाहत क्यों हो ?
कुछ अरमानो को जिंदगी देने की खातिर...
कई ख्वाईशों को मिटाने की चाहत क्यों हो ?
जिंदगी तो तन्हाई को भी पुरी दुनिया बना सकती है...
जिंदगी तो किसी शख्स के बिना भी मुस्कुरा सकती है...
क्यों न ऐसी ही पाख सी जिंदगी जी जाए...
क्यों न खुले आसमा में परवाज़ ली जाए...
अपने अफकारो को बहती दिशा दी जाए...
भावार्थ...
दोस्ती !!!
सिर्फ़ मकसद के लिए हमसे मिलने न आया करो...
गम की फितरत ही है तन्हाई मैं उफनने की ...
सर्द रातें बिन हमारे कहकहों के न गुज़ारा करो...
तुम्हारे दर्दो से भी मुझे उतनी ही मोहब्बत है...
सिर्फ़ खुशियाँ बिखेरने मेरे यहाँ न आया करो...
दोस्त मानते भी हो या सिर्फ़ कहते ही हो मुझे...
रूह को कुरेदती बातो को भी हमें बताया करो...
मेरे पास भी अगर तुम्हारे राज महफूज नहीं है...
तो मय के नशे मैं उन्हें तुम बडबडाया न करो...
रूठने और मनाने से रिश्तो की कशिश रहती है...
पर रूठने और मनाने मैं फासला बढाया न करो...
दोस्ती खुदा का बेनाब तोहफा है जिंदगी को दोस्त ...
बेशकीमती एहसासों को युही तुम जाया न करो...
भावार्थ...
Sunday, November 16, 2008
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है !!!
मुझे मेरे रास्ते से गुमराह किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मुझे हर बात बेखौफ कहने में कैफ मिलता है...
मेरे उसी अंदाज़ पर मुझे शर्मिंदा किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
उनको मालूम है मेरा अंदाज़-ऐ-बयां सबसे जुदा है ...
तो मुझे मेरे हर एक अल्फाज़ पे टोका जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मेरे मरासिम ही तो हैं मेरी हस्ती की बुनियाद ...
मेरे हबिबो को एक एक कर के खरीद जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
हवा रोक दी, धुंद भर दी फलक तक, पर काट दिए...
और मुझे आकाश में उड़ने का फरमान दिया जा रहा ....
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
इन्कलाब के ख्याल तो मेरे जेहेन में रहते हैं...
और मुझे मेरे पहनावे पे तलब किया जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
वो ख़ुद तो बुन न सके एक ख्याल भी कभी...
और मेरे अफकारो को धुंधला तसव्वुर कहा जा रहा है...
मुझे कुछ इस तरह परेशा किया जा रहा है...
मुझे मेरे रास्ते से गुमराह किया जा रहा है...
भावार्थ...
फ़िर बाज़ार गया मैं...!!!
कुछ और खरीदने के बहाने ही सही पर बाज़ार गया मैं...
हर मुमकिन चीज़ जो थी बाज़ार के कौनो में ले आया ...
फ़िर भी अपने घर के वीराने को भरने को बाज़ार गया मैं...
शाम ढले जब खुदा का नूर बुझ गया मेरी रूह के दिए से ...
उन झूठे उजालो की फिराक में ही सही पर बाज़ार गया मैं...
काटने दोड़ने लगी हैं सभी जानी पहचानी सी शकले मुझे...
किसी अजनबी भीड़ में गुम होजाने को फ़िर बाजार गया मैं...
समाज के ढंग, सलीके और तरीकों से मेरा जेहेन उख्ता गया ...
तो लहू बन गए उस जमीर को बेचने की खातिर बाज़ार गया मैं...
भावार्थ...
जो बात तुझमें है !!!
तेरी तसवीर में नही
तसवीर में नही...
रंगों में तेरा अक्स ढला, तू ना ढल सकी
साँसों की आंच जिस्म की खुशबू ना ढल सकी
तुझ में जो लोच है, मेरी तहरीर में नही
तहरीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
बेजान हुस्न में कहाँ, रफ़्तार की अदा
इनकार की अदा है, ना इकरार की अदा
कोई लचक भी जुल्फ-ऐ-गिरहगीर में नही
गिरहगीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
दुनिया में कोई चीज़ नहीं है तेरी तरह
फिर एक बार सामने आजा किसी तरह
क्या और एक झलक मेरी तक़दीर में नही
तक़दीर में नही
जो बात तुझ में है,
तेरी तसवीर में नही
साहिर लुधियानवी...
Saturday, November 15, 2008
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी !!!
कुछ तो बता ऐ मेरी अजनबी जिंदगी...
एक खाब था देखा मासूम बचपन का...
माँ से लिपट कर झूठी-मूटी अनबन का...
खिलौनो से फूटती उस मधुर छनछन का...
क्यों अतीम सी लुटी भला मेरी जिंदगी...
नाराज ये खाब है या तू मेरी जिंदगी...
खाब था शयद कुछ कर गुजरने का...
दुनिया के रास्तो पे नई तरह चलने का...
हाथो में लिखी तकदीर बदलने का...
क्यों हार हर बार दी तुने ऐ जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
खाब था एक हसीं जा मूरत का साथ मिले...
उसके गेसू उसकी अदा की सौगात मिले...
जवानी के तड़पते सेहरा को बरसात मिले...
क्यों बेवफाई मोहब्बत में भर दी जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
खाब था भटकती जिंदगी को सुकून मिले ...
हमसफ़र मिले अगर तो बस तन्हाई मिले...
रानाई में न बहने का कुछ हौसला मिले ...
क्यो दर्द लिखने की तमन्ना दी जिंदगी ...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
नाराज ये खाब हैं या तू मेरी जिंदगी...
कुछ तो बता ऐ मेरी अजनबी जिंदगी...
भावार्थ...
मीलों है खामोशी बरसों है तनहाई...
भूली दुनिया कभिकी तुझे भी मुझे भी...
फिर क्यों आँख भर आयी...
कोई भी साया नहीं राहों मैं...
कोई भी आएगा न बाहों मैं...
तेरे लिए मेरे लिए कोई नहीं रोनेवाला...
झूठा भी नाता नहीं चाहूं मैं...
तू ही क्यों डूबा रहे आहों मैं...
कोई किसी संग मरे ऐसा नहीं होनेवाला...
कोई नहीं जो यूँ ही जहाँ मैं बातें पीर परायी...
किसका रास्ता देखे ए दिल ए सौदाई...
तुझे क्या बीती हुई रातों से...
मुझे क्या खोई हुई बातों से...
सेज नहीं चिता सही जो भी मिले सोना होगा...
गई जो डोरी छूती हाथों से...
लेना क्या टूटे हुए सातों से...
खुशी जहाँ मांगी तूने वहीँ मुझे रोना होगा...
न कोई तेरा न कोई मेरा फिर किसकी याद आई...
किसका रास्ता देखे ए दिल ए सौदाई...
साहिर लुधियानवी...
Friday, November 14, 2008
कांच में महफूज ख्वाब !!!
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
ख़ुद चले गुरूर की परछाई भी साथ चल पड़ी...
होसलें ने कुछ दम भरा खुदाई साथ चल पड़ी...
कुछ एक बूँद ठहरी फलक पे वो गरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
अम्बर पे सर उठाया फ़िर मंजिल नज़र आई...
तूफ़ान से उमडे समंदर पे उड़ती सी लहर आई...
हकीकत की दुनिया पे मेरे खाब उड़ने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
साँस थमने लगी तो साँस बन गए मेरे खाब...
रुत बिगड़ी तो रुत बन के संवर गए मेरे खाब...
वो मेरी तमन्नाओ की सूरत बन उभरने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
जिंदगी से महरूम संग भी आज जिन्दा हैं ...
परवाज़ को मोहताज इंसान आज परिंदा हैं...
छुपे अरमान खुलके आईने में सवारने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
भावार्थ...
मन रे तू कहे न धीर धरे !!!
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
इस जीवन की चढ़ती ढलती
धुप को किस ने बाँधा
रंग पे किस ने पहरे डाले
रूप को किस ने बाँधा
काहे यह जातां करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
उतना ही उपकार समझ कोई
जितना साथ निभा दे
जनम मरण का मेल है सपना
यह सपना बिसरा दे
कोई न संग मरे
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
हो मन रे तू काहे न धीर धरे
साहिर लुधियानवी...
Thursday, November 13, 2008
में हर एक पल का शायर हूँ !!! ( Original Poem )
हर एक पल मेरी कहानी है
हर एक पल मेरी हस्ती है
हर एक पल मेरी जवानी है
रिश्तों का रूप बदलता है, बुनियादें ख़तम नहीं होती
ख्वाबों की और उमंगो की, मियादें ख़तम नहीं होती
एक फूल में तेरा रूप बसा एक फूल में मेरी जवानी है
एक चेहरा तेरी निशानी है, एक चेहरा मेरी निशानी है
में हर एक पल का शायर हूँ...
तुझको मुझको जीवन अमृत, अब इन हाथों से पीना है
इनकी धड़कन में बसना है, इनकी साँसों में जीना है
तू अपनी अदाएं बख्श इन्हें में अपनी वफाएं देता हूँ
जो अपने लिए सोची थी कभी, वोह सारी दुआएं देता हूँ
में हर एक पल का शायर हूँ...
साहिर लुधियानवी...
कैसे मैं जिंदगी जिए जाऊं !!!
मैं कैसे बता खाने का थाल सजाऊँ ...
अंतडिया लाखों पानी को मोहताज़ हैं...
मैं सागर को अपने कैसे छलकाऊ...
अधनंगे बदन को छिपाए फटी उतरन...
मैं बता कैसे ख़ुद सज-धज के इतराऊ...
सिली पन्नियों से बुनी टूटे टाट की छत...
कैसे संगमरमर की मैं ठंडक पाऊँ...
छाले बनते हैं लहू रिसता रहता है पैरो से...
कैसे मैं जूतों का नर्म एहसास पाऊं...
जिंदगी मोहताज है कितनी जीने को...
तू ही बता कैसे मैं जिंदगी जिए जाऊं...
भावार्थ...
Wednesday, November 12, 2008
तेरा इश्क इश्क, इश्क इश्क...
मेरे शौक़-ऐ-खाना ख़राब को, तेरी रहगुज़र की तलाश है...
मेरे नामुराद जूनून का है इलाज कोई तो मौत है...
जो दावा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है...
तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू
दिल इश्क जिस्म इश्क है और जान इश्क है...
ईमान की जो पूछो तो ईमान इश्क है...
तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू...
तेरा इश्क में कैसे छोड़ दूँ, मेरी उम्र भर की तलाश है...
जानसोज़ की हालत को जानसोज़ ही समझेगा...
में शमा से कहता हूँ महफिल से नहीं कहता क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
सहर तक सबका है अंजाम जल कर ख़ाक हो जाना...
भरी महफिल में कोई शम्मा या परवाना हो जाए क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
वेह्शत-ऐ-दिल रस्म-ओ-दीदार से रोकी न गई...
किसी खंजर, किसी तलवार से रोकी न गई...
इश्क मजनू की वो आवाज़ है जिसके आगे....
कोई लैला किसी दीवार से रोकी न गई, क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
वो हंसके अगर मांगें तो हम जान भी देदें...
हाँ ये जान तो क्या चीज़ है ईमान भी देदें क्योंकि...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
नाज़-ओ-अंदाज़ से कहते हैं की जीना होगा...
ज़हर भी देते हैं तो कहते हैं की पीना होगा...
जब में पीता हूँ तो कहतें है की मरता भी नहीं...
जब में मरता हूँ तो कहते हैं की जीना होगा....
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
मज़हब-ऐ-इश्क की हर रस्म कड़ी होती है...
हर कदम पर कोई दीवार खड़ी होती है...
इश्क आजाद है, हिंदू न मुसलमान है इश्क...
आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क...
जिस से आगाह नही शेख-ओ-बरहामन दोनों...
उस हकीकत का गरजता हुआ ऐलान है इश्क...
इश्क न पूछे दीं धर्म नु, इश्क न पूछे जातां...
इश्क दे हाथों गरम लहू विच, डूबियाँ लाख बराताँ के
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क
राह उल्फत की कठिन है इसे आसान न समझ..
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
बहुत कठिन है डगर पनघट की...
अब क्या भर लॉन में जमुना से मटकी...
में जो चली जल जमुना भरण को...
देखो सखी जी में जो चली जल जमुना भरण को...
नंदकिशोर मोहे रोके झाडों तो...
क्या भर लॉन में जमुना से मटकी...
अब लाज राखो मोरे घूंघट पट की...
जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के...
जान अजान का मान भुला के, लोक लाज को ताज के...
जनक दुलारी बन बन डोली, पहन के प्रेम की माला...
दर्शन जल की प्यासी मीरा पि गई विश् का प्याला...
और फिर अरज करी ...
लाज राखो राखो राखो, लाज राखो देखो देखो, ...
ये इश्क इश्क है इश्क इश्क, ये इश्क इश्क है इश्क इश्क
अल्लाह रसूल का फरमान इश्क है...
याने हफीज इश्क है, कुरान इश्क है....
गौतम का और मसीह का अरमान इश्क है....
ये कायनात जिस्म है और जान इश्क है...
इश्क सरमद, इश्क ही मंसूर है....
इश्क मूसा, इश्क कोह-ऐ-नूर है...
खाक को बुत, और बुत को देवता करता है इश्क...
इंतहा ये है के बन्दे को खुदा करता है इश्क...
हाँ इश्क इश्क तेरा इश्क इश्क....
तेरा इश्क इश्क, इश्क इश्क...
साहिर लुधियानवी...
Tuesday, November 11, 2008
हिज्र बेइन्तेआह !!!
लिखते लिखते आज मेरी कलम रोने लगी...
न जाने कितनी दर्द भरी उसकी कहानी थी...
कहते कहते दिल से आह बहने सी लगी...
न मिटने वाली वो हिज्र की कोई निशानी थी...
आँसू ख़ुद को रोक न पाये थमी साँस के साथ...
दिल का दरिया बह निकला तेरी याद के साथ...
तन्हाई की परछाई कहाँ मुझसे अनजानी थी...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
रात रुक रुक कर मेरी सिसकियाँ सुना करती थी ...
हवा बह बह कर गम की दुनिया बुना करती थी...
सावन की सेहरा सी जलती ये दास्ताँ पुरानी थी...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
बेरंग सा हर रंग मुझे कुछ अब लगने लगा है...
बुझा सा हर नूर मुझे क्यों अब दिखने लगा है...
रूह बिन हर जिस्म जैसे मूरत कोई बेमानी थी ...
न मिटने वाली वो हिज्र की ऐसी निशानी थी...
भावार्थ...
वो सुबह कभी तो आयेगी...
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा...
जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा...
जब अंबर जूम के नाचेगा, जब धरती नगमी जायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
जिस सुबह की खातिर जग जग से, हम सब मर मर कर जीते हैं...
जिस सुबह के अमरिअत की बूँद में, हम जहर के प्याले पिटे हैं...
इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फरामायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं ...
मिट्टी का भी हैं कुछ मोल मगर, इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं ...
इंसानों की इज्जत जब जूठें सिक्कों में ना तोली जायेगी...
वो सुबह कभी तो आयेगी वो सुबह कभी तो आएगी...
साहिर लुधियानवी...
Monday, November 10, 2008
बूंदों को मिला पारदर्शी जिस्म !!!
हवा में ये उड़ती हुई मद्धम सर्दी घुंघराले बादर सी है...
ओस का घहरा समंदर जिस कोहरे के आँचल में है...
वोह फिजा में घुली नशीली हवा की एक नज़र सी है...
जम गई पानी की बूँद बूँद जैसे किसी ने जादू किया हो...
बूंदों को मिला पारदर्शी जिस्म खुदा की कोई मैहर सी है....
ठंडक रूह बनके आस पास हर एक जर्रे में बस चुकी है...
थमी हुई इन्सां की ये सहमी दुनिया सर्दी की कहर सी है....
जमी जमी नदी जो सूरज को देख कभी कभी रेंगती सी है...
हर एहसास जिसमें सुन्न हो जाए ऐसी ठंडी लहर सी है...
भावार्थ...
Sunday, November 9, 2008
बेरंग शोखी !!!
उसके चेहरे पे न अब नज़र आती शोखी...
हया बन जो कभीथी खिलखिलाती शोखी...
वोह हैं और फिरभी आगोश तनहा है...
बला का कहर कभी थी जो ढाती शोखी...
निश्तर सी गिरती थी जो दिलो पे कभी ...
अब कोई भी असर न कर पाती शोखी...
न हो रंग फिजा में तो ख़ुद छाने का हुनर ...
अब तो बेरंग बेनूर और बदहाल है शोखी...
नज़रो में, होठो पे, गेसुओं से सवरती थी...
आँसू के गिरहो में है वो पनाह पाती शोखी...
लचक, मटक, सवर कर चलती थी कभी...
टूटे,बोझिल रिश्तो में लडखडाती शोखी...
वो ग़ज़लों ,नज़मो शेरो में जो सराही गई...
ख़ुद के होने पे भी अब वो तरस खाती शोखी...
भावार्थ...
Saturday, November 8, 2008
आदत है जिए जाना भी !!!
कुछ एक और नाकामी मिले तो सुकून आए...
रास्तो को मेरे न मंजिल मिले तो सुकून आए...
हौसले मेरे डगमगाए तो हैं पर अभी टूटे नहीं हैं...
पत्थर से ये तिनका बन बिखर जाए तो सुकून आए...
किस्मत सेहरा में आई तो तपिश ले कर आई ...
गर्मी नसों में लहू बन उतर जाए तो सुकून आए...
चलते चलते न जाने कौन सा मंजर मिलेगा मुझे...
लडखडाते कदम अगर चल न पायें तो सुकून आए...
मेरी धुंधले वजूद के होने के गवाह हैं मेरे अपने...
पहचान उनके जेहेन से उतर जाए तो सुकून आए...
सिसकियों के सावन जो बहे मेरी तन्हाईओं में...
संग-ऐ-सहेरा मेरी वही आँखें हो जाए तो सुकून आए...
किसी न क्या खूब कहा है आदत है जिए जाना भी...
अब तो बस ये बुरी लत छूट जाए तो सुकून आए...
भावार्थ...
Thursday, November 6, 2008
एक शाम साहिल पे...!!!
मदहोश लहरें हर बार मिटा गई...
में उफनते समंदर को ताकता रहा...
सूरज की गर्मी उसमें पनाह पा गई...
न सुर्ख लाल और न चटक पीला मंजर...
लालिमा हल्दी में लिपटी वहां छा गई...
कुछ तैरते जहाज नजरो से बोझिल हुए...
कश्ती हर एक लौट किनारे पे आ गई...
मछलियाँ खुश हैं जाल सारे घर लौटे गए...
जिंदगी एक और दिनका तोहफा पा गई...
हाथ में हाथ डाले शाम और रात मिले...
जलते हुए दिन को रातकी चांदनी भा गई...
पाखी लौटने लगे अपने घरोंदे को...
मुझको बुलाने भी तन्हाई आ गई...
भावार्थ
Wednesday, November 5, 2008
जिंदगी उस मुकाम पे है...!!!
जब कुछ नहीं चाहिए...कुछ भी नहीं !!
न सोहरत की रौनक ...जुगनू सी !!
न पैसो की खनक... गूंगी सी !!
न ओहदे का लालच... फीका सा !!
न खोखली हलचल... पल भर की !!
न इश्क की इनायत ... झूठी सी !!
न हुस्न की नजाकत ... रुखी सी !!
न रिश्तो के ताने-बने... गुथे गुथे से !!
न रिवाजों के त्यौहार सुहाने... उजडे से !!
न बातें कहूं न बातें सुनूँ... बक बक सी !!
न गीत कहूं न कहानी बनू...बेढंग सी !!
न किसी की चाहत... अजनबी सी !!
न किसी की इबादत... बेदिल से !!
क्या दुनिया का कोई ऐसा कौन मिलेगा...
जहाँ इंसान इस मुकाम पे जिया जाए ...
बस जिया जाए !!! बस जिया जाए !!!
भावार्थ...
Tuesday, November 4, 2008
बदल कर भी ये दुनिया नहीं बदली !!!
चका चौंध में भी हर नज़र रही धुंधली...
वही वहशी निगाहें और वही बिकते जिस्म...
दमकते बाज़ार की पर सीरत नहीं बदली...
तराजू तोलते थे कल,तराजू तोलते हैं आज...
बाज़ार बदला मगर कीमत नहीं बदली...
किनारों पे टकराता है गम से भरा समंदर...
तरंग बदली मगर उसकी लहर नहीं बदली...
भावार्थ...
Monday, November 3, 2008
सुरमई अखियों में !!!
निंदिया के उड़ते पाती रे...
अखियों मै आज साथी रे...
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
सच्चा कोई सपना देजा ...
मुझको कोई अपना देजा...
अंजना सा मगर कुछ पहचाना सा...
हलक फुल्का शबनमी...
रेशम से भी रेशमी...
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
रात के रथ पे जाने वाले...
नींद का रस बरसाने वाले...
इतना केर दे की मेरी आँखे भर दे॥
आखों मैं बसता रहे...
सपना ये हँसता रहे...
सुरमई अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा...२
रारी रा रूम ओ रारी रूम....२
गुलज़ार...
Sunday, November 2, 2008
सुबह के पहले पहर जिंदगी अजीब थी !!!
फुटपाथ के बिस्तर सिमट रहे थे...
रिक्शे वालो के झुंड बन गए थे...
चाय की दुकाने कुकुरमुत्तो सी हर तरफ़...
कांपते जिस्मो को कुछ बूँद गर्मी दे रही थी...
धूल सडको पे से कौनो पे सिमटी जा रही थी...
चौराहे वीराने में जाग गए...
मुरझाये चेहरे अलाव तापते बैठे थे...
पन्नी पल्स्टिक कूदे के ढेर से उठ चुकी थी ...
अख़बार बांटती सायकिलें एक साथ निकली...
स्याही में लिपटी खबरे ताज़ी ताज़ी थी ...
मजदूरों की टोली फेक्ट्री खुलने के इंतज़ार में...
ठण्ड में बीडी पे बीडी फूँके जा रही थी ...
ढूढ़ वालो की गाड़ी पल पल पे निकलती थी ...
बस यही दुनिया जागी और उनकी सुबह ख़तम हुई...
बाकी दुनिया अभी "गुड मोर्निंग" बोलेगी...
भावार्थ...
फुर्सत !!!
अपनी मसरूफियत से कुछ पल चुरा के...
मैं बना रही हूँ फुर्सत....
आसान नही है ये...
इसमे जगह पाने...
बीते सालों की कितनी बातें ...
मेरे सामने चक्कर लगा रही हैं...
याद है...तुम्हारी वो घड़ी जो...
मेरे पास रह गई थी...
फुर्सत में उसकी टिक टिक...
हाय !!परेशान कर दिया है...
वक्त का एहसास ही तो भूलना था कैसे भूलूं ?...
और अब ये किताब के पन्ने...
उड़ उड़ के वहीँआ जाते हैं ...
जहाँ तुम्हारा नाम लिखा है ...
कैसे वो पेन तुम अपने होंठो में दबाये रखते थे ...
नीले पड़ जाते थे होंठ...
मैंने जिस रुमाल से पोंछा था ...
आज तक नही धो पायी तुम्हारी खुशबू ...
सामने खड़ा आइना जिसमें कभी...
मेरी -तुम्हारी...
मतलब हमारी तस्वीर साथ थी....
इस आईने का पानी आंखों में उतर रहा है ...
अब तो ये भी तंग कर रहा है...
और ....याद है
वो पानी जिसके किनारे पे ...
हम डूब गए थे..........
और ये नोटजो तुम्हारी जेब से चुराए थे कभी...
अब इनकी कीमत कुछ बढ़ गई होगी शायद...
ऐ फ़ोन कमबख्त
जब भी बजता हैलगता है..............
हम घंटो बातें करते थे न...
क्या कहते थे???अब तो कुछ भी याद नही ....
जम्हाई लेती हूँ तो...
लगता है तुमने मुहपे हाथ रख दिया हो...
"अरे बस ना कल शायद सोयी नही"...
"मेरे बारे में सोच रही थी न ...
"तब मैंने "ना "कहा था ...
झूठ कहा था ...
मेरे ये हाथ कितनी बार थामे थे ...
टेढी मेढी लकीरें बनाने के बहाने ...
मैं भी अनजान सी बन जाती थी ...
और अब देखो इन लकीरों में ...
तुम्हारा नाम नही ...
काश तब अपने नाम की ...
एक लकीर भी बना देते...
मैं कुरेद कुरेद केहरा रखती...
पर मिटने न देती ...
और क्या मैं और मेरा ...
सब कुछ क्या क्या कहूँ ...
हाँ लगता है मुझे कभी ...
फुर्सत नही दोगे तुम.....
शमा...
Saturday, November 1, 2008
बिखरे जज्बात !!!
वो अजनबी लाता रहा अजनबी एहसास...
अजनबी से जुड़ी है मेरी अजनबी प्यास...
अजनबी खाबो में भी वही अजनबी...
फ़िरभी जारी है उस अजनबी की तलाश...
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कतरा कतरा कर के कतरा दरिया में जा मिला...
कतरे कतरे में उसके इतनी बेसब्री थी...
उसके हर कतरे में ख़ुदको मिटाने का जूनून था...
कतरे को अपने वजूद की इतनी बेकद्री थी ...
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लहू आज फ़िर लहूलुहान है इंतेशार से ...
लहू के प्यासे बन्दों का लहू उबल रहा है...
लहू में सने धड लहू चूते हुए सर ढूढ़ते हैं...
रगों में बहता हुआ लहू रोमो पे जम रहा है...
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भावार्थ
दे दो
तुम्हे उनकी कसम,ये दुःख ये हैरानी मुझे दे दो
मैं देखूं तो सही ,दुनिया तुम्हे कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी* मुझे दे दो
ये माना मैं किसी काबिल नही हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
वो दिल जो मैंने माँगा था मगर गैरों ने पाया था
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी* मुझे दे दो
नगह्बानी =देख रेख
पशेमानी =पछतावा
गीत
हमने तो जब कलियाँ मांगी कांटो का हार मिला
खुशबुओं की मंजिल ढ़ूंडी तो गम की गर्द मिली
चाहत के नगमें चाहे तो आंहें सर्द मिली
दिल के बोझ को दूना कर गया जो भी गमख्वार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिन के प्यार को प्यार मिला
बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल क साथ
किस को फुर्सत है जो थामे दीवानों क हाथ
हम को अपना साया तक अक्सर बेजार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
इस को भी जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ ना करेंगे लैब सी लेंगे आंसू पी लेंगे
गम से अब घबराना कैसा गम सौ बार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ मांगी कांटो ka हार मिला
खूबसूरत मोड़.
ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिल नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खडाए मेरी बातों में
ना ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से
तारुर्फ़ रोग हो जाए तो उसका भूलना बेहतर
तआल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.
Friday, October 31, 2008
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह बहती रही...
और इंसान कहाँ गिर के जाएगा...
बेहरहम तड़प आसमान छु रही है...
न जाने कब वो रहनुमा आएगा...
हर सुबह बैचैनी की साँस लेती है...
दिन भर होसले टूटते बिखरते रहते हैं...
शाम थक हार के बिस्तर पे पड़ जाती है...
रातो को जुगनू सहमे सहमे से बहते हैं...
मकसद जीने के बेमानी लगते हैं...
सिक्को की खनक चुभती है दिल में...
हर रोज वही मरते रहने का एहसास...
जिए जाना भी खौफ है मुर्दा शहर में...
किस्मत अब मनचाहे तराने नहीं छेड़ती ...
हाथ की रेखाओं के तो बस अवशेष बचे हैं...
मुकद्दर ख़ुद से रूठ कर बैठा है कौने में...
भाग्य के हसी कारवां के बस निशाँ बचे हैं...
सुकून के चंद लम्हे बुने साल बीत गए...
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह बहती रही...
बचपन,जवानी,बुढापा मौसम से आए...
इंसानियत मेरी रोम रोम से रिसती रही...
भावार्थ...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
ये महलो ये तख्तो ये ताजो की दुनिया...
ये इंसान के दुश्मन समाजो की दुनिया...
ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
हर एक जिस्म घायल हर एक रूह प्यासी...
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी....
यहाँ एक खिलौना है इंसान की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा परस्तो की बस्ती...
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो है !!!
जवानी भटकती है बदकार बनकर...
जवान जिस्म सजते हैं बाज़ार बनकर
यहाँ प्यार होता है व्यापार बनकर...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !!!
ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है...
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है...
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...
जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया...
मेरे सामने से हटालो ये दुनिया
तुम्हारी है तो तुम्ही संभालो ये दुनिया...
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है....
साहिर लुधियानवी...
Thursday, October 30, 2008
गीला गीला सा सच !!!
किनारे से मिले फसाने हकीकत कहे जाते हैं...
तैरती हकीकतें अब भी फ़साने समझे जाते हैं...
कुछ नहीं सच और कुछ नहीं झूठ यु तो...
जो सीरत भीड़ सी वही सच और झूठ बन जाते हैं...
रौशनी देने वाले अंधेरे में चिराग ढूढ़ते हैं ...
बेरुखी भरे समंदर में एक बूँद आस ढूढ़ते हैं...
कब के मर चुके जमीर इस दुनिया में...
और वो बाज़ार में आबरू और ईमान ढूढ़ते हैं...
कुछ एक खवाब बस घुट जाने को पनपते हैं...
कुछ ख्याल रिवाजो में सिमट जाने को बनते हैं...
हर बात होठो से उठी हकीकत नहीं बनती...
कुछ अरमान सिर्फ़ बुझ जाने को उफनते हैं...
क्यों जीने के ये मकसद मुझे रिझाते नहीं...
रंगरलियाँ, ऐशो-आराम क्यों मुझे भाते नहीं...
हकीकत मुझे हर एक मंजर में नज़र आती है...
दुनिया के बनाये नज़ारे मुझे नज़र आते नहीं...
भावार्थ...
कुछ शेर !!!
सीला हुआ साहिल काफ़ी न था लहरों को रोक पाने को...
उठ कर गिरते हुए पानी की सीरत मीठी न थी...
हवाओ का रुख काफ़ी था हिलोरों को शोला बनाने को...
दरिया का कतरा कतरा प्यास से कहीं मर न जाए...
साँसों में रोके हुए है नमी सेहरा कहीं उखड न जाए...
पपीहा बूँद की परवाज़ का अरमान लिए जीता है ...
ओस को प्यासा कोहरा धुंध में कही घुल न जाए...
हर एक मंजर यादो के पत्तो से बना है शायद...
हर एक पहर तेरे एहसासों से बना है शायद ...
कितना अजीब सा है मेरा नादान दिल...
जिससे खफा है उसीके वादों से बना है शायद...
लिखता हूँ उसका नाम और फ़िर मिटा देता हूँ...
कैसे कैसे हर रोज में ख़ुद को सजा देता हूँ...
दीवानगी यह नहीं तो और क्या है तू ही बता ...
जलाता है इश्क और मैं साँसों को बुझा देता हूँ...
भावार्थ...
Wednesday, October 29, 2008
राम बनवास से आज लौट आए शायद !!!
बारूद उड़ उड़ के हवा को रोंद रहा है...
बाज़ार भीड़ से घुटन में दम खो रहे हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद....
अंधेरे को उजाला सुकून से जीने नहीं देता है...
जानवर उठ कर आदमी के हैवान को देखते हैं...
भूखो को सजी मिठाइयां बदनसीबी याद दिलाती हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद...
आसमान को आग ने झुलसा दिया है...
धरती धमाको से सुन्न सी पड़ी हुई है....
शाम और रात ने कान बंद केर लिए हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद...
रावण और उसके इरादे अब भी जिन्दा है...
पता नहीं कौन से असुर को मार के लौटे हैं....
अँधेरा लोगो के दिलो में आज भी गहरा हैं...
राम बनवास से आज लौट आए शायद....
तभी लोग दिवाली मना रहे हैं....
भावार्थ...
Sunday, October 26, 2008
दिल हूम हूम करे...
दिल हूम हूम करे घबराए...
घन धम धम करे गरजाए...
एक बूँद कभी पानी की ...
मोरी अंखियों से बरसाए...
दिल हूम हूम करे...
तेरी झोरी डरूं...
सब सूखे पात जो आए
तेरा छुआ लागे...
मेरी सूखी डार भर आए
दिल हूम हूम करे...
जिस तन को छुआ तुने...
उस तन को छुपाऊँ...
जिस मन को लागे नैना...
वोह किसकी दिखाऊँ
ओ मेरे चंद्रमा
तेरी चांदनी आग लगाये
तेरी ऊंची अटारी...
मैने पंख लिए कटवाय....
दिल हूम हूम करे॥
गुलज़ार...
Saturday, October 25, 2008
हसरतें !!!
सिमटती बिखरती हसरते ...
ये मिटती सवरती हसरतें..
उसके खाब का मीठा एहसास..
न बुझ पाये वो दबी सी प्यास...
तन्हाई में आगोश में वो पास....
ये बुझती सुलगती हसरतें...
अपने आँचल में भरती हसरतें ...
उलझी सी इश्क की ये नज़र...
साँसों का मद्धम सा ये मंजर...
उसके पहलू में शामो ये सहर...
ये जलाती सहलाती हसरतें...
मुझको अपना बनाती हसरते...
अरमानो की गहरे समंदर...
लहरों की मचलते से सजर...
ख्वाइशों के मनचाहे कहर...
ये उठती गिरती हसरतें...
ये सजती बिगड़ती हसरतें...
भावार्थ...
बीती न बीते न रैना...गुलजार !!!
कोरे हैं नींद से नैना...
नैनो के सपने भिगोके...
आए तो बोले न बैना...
बीते न बीते न रैना -२
रातो के पन्नो पे न कोई कारा...
न कोई संगी न कोई बाती..
आंगनमें उतरे न सुबह के पाखी...
न कोई सजन न कोई साथी...
बीते न बीते न रैना...3
तारो में उड़ती हैं पागल हवाएं...
मरू अकेले न जाना ...
बादल के टीले पे उगते बबूल
टीले पे घर न बनाना...
बीते न बीते न रैना...4
गुलजार...
Thursday, October 23, 2008
भूख की शकले...!!!
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
सुबह शायद सबसे संगदिल है...
बच्चो की बिलख उड़ उड़ के आती है...
एक रोटी और तीन पेट क्या खुदाई है ...
उजड़ते बचपन में भूख उभर आती है...
रुंदन की घटा हर रोज युही बरसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
चौराहे पे एक गोले से निकली लड़की...
न जाने कितनी तरह से ख़ुद को मोडे है...
भूख भी क्या करतब सिखाती है...
अपने बचपन को पगली पीछे छोडे है...
अदाकारी भी इंसान में ऐसे ही बसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
जो है वो शायद जिन्दा रखने को काफ़ी नहीं...
रास्ता सूझता नहीं उस बुझती सोच को...
भीख मागने पे जमीर आ खड़ा होता है ....
चुरालिये कुछ एक टुकड़े भूक मिटाने को.....
चोरी जन्मजात होने का न निशाँ रखती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...
भूखी माँ क्या खिलाये भूखे बच्चे को...
दूध आँचल से अब नहीं रिसता उसके...
फ़ुट पड़ता है उसका गुस्सा बचपन पे...
जब चीखते बच्चे खीचते है हाथ उसके...
ख़ुद से नारजगी गुस्सा बनके उभरती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
टूटा बदन और बिखरा हुआ जेहेन...
कहाँ से जिन्दा होने का हौसला लाये...
भूख का बाँध कभी तो टूटेगा....
सांसी चलने का फ़ैसला कहाँ से लाये...
हैवानियत इंसान में यही से पनपती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....
भावार्थ...
में डरने लगा हूँ !!!
तन्हाई में अक्सर आईने से भी मैं डरने लगा हूँ।
खौफ मेरी रूह में है कॉम-ऐ-इंतेशार से इतना।
अब तो हिचकियों , डकारो से भी डरने लगा हूँ।
लहू का सावन था वो बस चुका है मेरे जेहेन में।
सुर्ख लाल सी हर एक चीज़ से में डरने लगा हूँ।
भजन और अजान पढने वाले कत्ल पे आमदा हैं।
अब खुदा क्या , शिव क्या इन नामो से डरने लगा हूँ।
भावार्थ...
Wednesday, October 22, 2008
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक... !!!
मुस्कुरा ऐ ज़मीन-ऐ-तीरह-ओ-तार...
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक...
देख वो मगहर्बी उफक के करीब...
आंधियां पेच-ओ-ताब खाने लगीं...
और पुराने कमार-खाने में ...
कुहनाह शातिर बहम उलझाने लगे...
कोई तेरी तरफ़ नहीं निगरान...
ये गिरां-बार सर्द जंजीरें...
जंग-खुर्दा हैं, आहनी ही सही...
आज मौक़ा’ है टूट सकती हैं...
फुर्सत-ऐ-याक नफस ग़नीमत है...
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक...
साहिर लुधियानवी...
उर्दू:
तीरह-ओ-तर्क - Dark
मखलूक- people
मगहर्बी-western
उफक-horizon
पेच-ओ-ताब-Restlesnes,anxiety
कमार-खाने-Gamble house
कुहनाह-Old ancient
गिरां-बार-Heavy
जंग-खुर्दा-Rusted
आहनी-Iron
फुर्सत-ऐ-याक नफस-a free moment
Tuesday, October 21, 2008
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ पकी तो कुछ कच्ची नीद लिए...
कोई चमकता चेहरा तो कोई बासी मुँह लिए....
कोई शानदार कपड़े में तो कोई फटे लत्ते सिये...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ लैपटॉप तो कुछ फावडा लिए हुए...
कुछ बड़े तो कुछ छोटे सपने बुने हुए...
कुछ जीते तो कुछ मरे जमीर को लिए हुए॥
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ नौसिखए हैं तो कुछ पुराने हैं....
कुछ पहचाने चेहरे कुछ अनजाने हैं....
कुछ दिलचस्प तो कुछ भूले फ़साने हैं...
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं...
कुछ बातें बनाने तो कुछ हुनर आजमाने...
कुछ शरीर बेचने तो कुछ आशियाँ बनाने...
कुछ हस्ती बनाने तो कुछ हस्ती मिटाने....
भूख हिलोरे लेती है हर सुबह...
और लोग घर से निकल पड़ते हैं ...
भावार्थ...
Monday, October 20, 2008
मैं चलता रहा !!!
कोहरा था और हवा चल रही थी...
ऐसा लग रहा था जैसे बादल
उड़ उड़ कर मुझे छु कर जा रहे हौं....
पेडो की नाक बह रही थी ठण्ड से...
और सड़के चुपचाप लिपटी पड़ी हुई थी...
पोस्ट लैंप बस ख़ुद को गर्मी दे रहा था...
कच्चा उजाला रास्ते में झांकना चाह रहा था...
ओस कोहरे में से टप-टप रिस रही थी...
हर चीज़ गर्मी को तरस रही थी...
लेकिन मैं रुका नहीं बस चलता रहा...
प्लास्टिक को अपने बोरे में भरता रहा...
इससे पहले कि ठण्ड मेरी रगों मैं बह जाए...
मेरी साँसे इस कोहरे में रुकी रह जाए...
ये धड़कता दिल पत्थर सा हो जाए...
मैं कूडे के ढेर पे झुकता रहा और चलता रहा...
भावार्थ...
Sunday, October 19, 2008
मिलन !!!
अपने आगोश के समंदर में समा लो...
तन्हाई साहिल पे बिखरी हुई है...
ख़ुद की चाहत की लहरों में बहा दो...
जेहेन का तूफान मेरा थमता नहीं...
इन खयालो को अंजाम मिलता नहीं...
ये इन्तहा है उसकी तमन्ना की...
साँसों में किसीका निशाँ मिलता नहीं...
रात शाम के ढलने का इंतज़ार करती है...
सुबह फ़िर न होने का ख्याल रखती है...
ख़ुद को एक अनजान फलक पे ले आओ...
बारिश ख़ुदको जलाने की ख्वाइश रखती है...
दो अक्सों को आख़िर एक सांचे में ढलना है...
तन्हा तमन्नाओ को हवाओ सा मचलना है...
दूरियां अपने होने का निशाँ ढूढती रह जाए...
आ जाओ तुमको मुझसे कुछ ऐसे मिलना है...
भावार्थ...