Tuesday, December 9, 2008

डर के जीना मौत से कहीं बदतर है...!!!

बस लड़ लड़ के रुक भी जाए जिंदगी तो अच्छा है...
डर डर के जीना भी यहाँ एक पल की मौत से कहीं बदतर है...

लम्हे दो लम्हे की तीरगी मिले तो अच्छा है...
कसक-ऐ-जेहेन भी सीने में धसी गोलियों से कहीं बदतर है...

खौफ के ये सजीले उफक छट जाएँ तो अच्छा है...
रानाई-ऐ-सुकूत भी यहाँ बेसुध धमाको से कहीं बदतर है...

लौट आऊं मैं जो खामोश साहिल पे तो अच्छा है...
थमा सा दरिया भी यहाँ उफनते समंदर से कहीं बदतर है...

अजनबी मुल्क में वफ़ा न करो तो अच्छा है...
जजा-ऐ-दोस्ती भी यहाँ सजा-ऐ-दुश्मनी से कहीं बदतर है...

जिंदगी तुझसे जो कुछ भी नहीं माँगा तो अच्छा है...
तामीर-ऐ-खाब भी तेरे साए में हकीकत से कहीं बदतर है...

बेलगाम मुल्क अब 'आवारा' बन जाए तो अच्छा है...
तौकीर-ऐ-रहनुमा भी यहाँ तजलील-ऐ-आम से कहीं बदतर है...

भावार्थ...

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