उसके चेहरे पे न अब नज़र आती शोखी...
हया बन जो कभीथी खिलखिलाती शोखी...
वोह हैं और फिरभी आगोश तनहा है...
बला का कहर कभी थी जो ढाती शोखी...
निश्तर सी गिरती थी जो दिलो पे कभी ...
अब कोई भी असर न कर पाती शोखी...
न हो रंग फिजा में तो ख़ुद छाने का हुनर ...
अब तो बेरंग बेनूर और बदहाल है शोखी...
नज़रो में, होठो पे, गेसुओं से सवरती थी...
आँसू के गिरहो में है वो पनाह पाती शोखी...
लचक, मटक, सवर कर चलती थी कभी...
टूटे,बोझिल रिश्तो में लडखडाती शोखी...
वो ग़ज़लों ,नज़मो शेरो में जो सराही गई...
ख़ुद के होने पे भी अब वो तरस खाती शोखी...
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Sunday, November 9, 2008
बेरंग शोखी !!!
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