Sunday, December 7, 2008

ऐ मेरे हमनशी !!!

ऐ मेरे हमनशी चल कहीं और चल...
इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं...
बात होती गुलो की तो सह लेते हम...
अब काँटों पे भी हक हमारा नहीं...

दी सदा दौर पे और कभी तुद पे...
किस जगह तुमको मैंने पुकारा नहीं...
ठोकरे खिलाने से क्या फायदा...
साफ़ कह दो की मिलना गवारा नहीं...

गुल्सिता को लहू की जरूरत पड़ी...
सबसे पहले ये गर्दन हमारी कटी...
फ़िर भी कहते हैं मुझसे ये अहल-ऐ-चमन...
ये चमन है हमारा तुम्हार नहीं...

जालिमो अपनी किस्मत प नाजा न हो...
दौर बदलेगा ये वक्त की बात है...
वो यकीनन सुनेगा सदायें मेरी...
क्या तुम्हारा खुदा है हमारा नहीं...

आज आए हो तुम कल चले जाओगे...
ये मोहब्बत को अपनी गवारा नहीं...
उम्र भर का सहारा बनो तो बनो...
दो घड़ी का सहारा सहारा नहीं...

अपनी जुल्फों को रुख से हटा लीजिये...
मेरा जोख-ऐ-नज़र आजमा लीजिये...
आज घर से चला हूँ यही सोच कर...
या तो नज़रे नहीं या फ़िर नज़ारा नहीं...

तस्सवुर खानुम...

No comments: