Wednesday, December 10, 2008

चाहत नही मुझको

मंजिल के करीब मजिल की चाहत नही मुझको...
सेहरा पे तपकर बारिश से भी राहत नहीं मुझको...

तड़पती रही रूह जिस हुस्न-ऐ-यजदान के लिए...
खुदा के नूर से भी अंधियारे में उजाला नहीं मुझको...

हुस्न-ऐ-रानाई की तमन्ना लिए मैं जिया जिसकी...
उसके आगोश में आकर भी पर सुकून नहीं मुझको...

तख्त-ओ-ताज का खवाब लहू बहाकर हासिल हुआ...
रहनुमा-ऐ-मुल्क बनके भी अब जूनून नहीं मुझको...

जिंदगी देगी मुझे मेरे जीने का सिला शायद कोई...
ये उम्र जी भी ली मगर जीने से कुछ हासिल नहीं मुझको...

भावार्थ...

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