भूख की आग में दुनिया जल रही है...
मैं कैसे बता खाने का थाल सजाऊँ ...
अंतडिया लाखों पानी को मोहताज़ हैं...
मैं सागर को अपने कैसे छलकाऊ...
अधनंगे बदन को छिपाए फटी उतरन...
मैं बता कैसे ख़ुद सज-धज के इतराऊ...
सिली पन्नियों से बुनी टूटे टाट की छत...
कैसे संगमरमर की मैं ठंडक पाऊँ...
छाले बनते हैं लहू रिसता रहता है पैरो से...
कैसे मैं जूतों का नर्म एहसास पाऊं...
जिंदगी मोहताज है कितनी जीने को...
तू ही बता कैसे मैं जिंदगी जिए जाऊं...
भावार्थ...
1 comment:
"I complaint,I had no shoes until I saw a man who had no feet"
very touching poem.
Post a Comment