वो अजनबी लाता रहा अजनबी एहसास...
अजनबी से जुड़ी है मेरी अजनबी प्यास...
अजनबी खाबो में भी वही अजनबी...
फ़िरभी जारी है उस अजनबी की तलाश...
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कतरा कतरा कर के कतरा दरिया में जा मिला...
कतरे कतरे में उसके इतनी बेसब्री थी...
उसके हर कतरे में ख़ुदको मिटाने का जूनून था...
कतरे को अपने वजूद की इतनी बेकद्री थी ...
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लहू आज फ़िर लहूलुहान है इंतेशार से ...
लहू के प्यासे बन्दों का लहू उबल रहा है...
लहू में सने धड लहू चूते हुए सर ढूढ़ते हैं...
रगों में बहता हुआ लहू रोमो पे जम रहा है...
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भावार्थ
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Saturday, November 1, 2008
बिखरे जज्बात !!!
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