सुबह सुबह अजीब सा मंजर था...
कोहरा था और हवा चल रही थी...
ऐसा लग रहा था जैसे बादल
उड़ उड़ कर मुझे छु कर जा रहे हौं....
पेडो की नाक बह रही थी ठण्ड से...
और सड़के चुपचाप लिपटी पड़ी हुई थी...
पोस्ट लैंप बस ख़ुद को गर्मी दे रहा था...
कच्चा उजाला रास्ते में झांकना चाह रहा था...
ओस कोहरे में से टप-टप रिस रही थी...
हर चीज़ गर्मी को तरस रही थी...
लेकिन मैं रुका नहीं बस चलता रहा...
प्लास्टिक को अपने बोरे में भरता रहा...
इससे पहले कि ठण्ड मेरी रगों मैं बह जाए...
मेरी साँसे इस कोहरे में रुकी रह जाए...
ये धड़कता दिल पत्थर सा हो जाए...
मैं कूडे के ढेर पे झुकता रहा और चलता रहा...
भावार्थ...
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