घटते जमीर और मिटती शख्शियत ...
और इंसान कहाँ गिर के जाएगा...
बेहरहम तड़प आसमान छु रही है...
न जाने कब वो रहनुमा आएगा...
हर सुबह बैचैनी की साँस लेती है...
दिन भर होसले टूटते बिखरते रहते हैं...
शाम थक हार के बिस्तर पे पड़ जाती है...
रातो को जुगनू सहमे सहमे से बहते हैं...
मकसद जीने के बेमानी लगते हैं...
सिक्को की खनक चुभती है दिल में...
हर रोज वही मरते रहने का एहसास...
जिए जाना भी खौफ है मुर्दा शहर में...
किस्मत अब मनचाहे तराने नहीं छेड़ती ...
हाथ की रेखाओं के तो बस अवशेष बचे हैं...
मुकद्दर ख़ुद से रूठ कर बैठा है कौने में...
भाग्य के हसी कारवां के बस निशाँ बचे हैं...
सुकून के चंद लम्हे बुने साल बीत गए...
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह बहती रही...
बचपन,जवानी,बुढापा मौसम से आए...
इंसानियत मेरी रोम रोम से रिसती रही...
भावार्थ...
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