कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
ख़ुद चले गुरूर की परछाई भी साथ चल पड़ी...
होसलें ने कुछ दम भरा खुदाई साथ चल पड़ी...
कुछ एक बूँद ठहरी फलक पे वो गरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
अम्बर पे सर उठाया फ़िर मंजिल नज़र आई...
तूफ़ान से उमडे समंदर पे उड़ती सी लहर आई...
हकीकत की दुनिया पे मेरे खाब उड़ने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
साँस थमने लगी तो साँस बन गए मेरे खाब...
रुत बिगड़ी तो रुत बन के संवर गए मेरे खाब...
वो मेरी तमन्नाओ की सूरत बन उभरने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
जिंदगी से महरूम संग भी आज जिन्दा हैं ...
परवाज़ को मोहताज इंसान आज परिंदा हैं...
छुपे अरमान खुलके आईने में सवारने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
कांच में महफूज ख्वाब मेरे लरजने लगे...
हवा जिंदगी की चलो ऐसी वो मचलने लगे...
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, November 14, 2008
कांच में महफूज ख्वाब !!!
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