Thursday, October 30, 2008

गीला गीला सा सच !!!

किनारे से मिले फसाने हकीकत कहे जाते हैं...
तैरती हकीकतें अब भी फ़साने समझे जाते हैं...
कुछ नहीं सच और कुछ नहीं झूठ यु तो...
जो सीरत भीड़ सी वही सच और झूठ बन जाते हैं...

रौशनी देने वाले अंधेरे में चिराग ढूढ़ते हैं ...
बेरुखी भरे समंदर में एक बूँद आस ढूढ़ते हैं...
कब के मर चुके जमीर इस दुनिया में...
और वो बाज़ार में आबरू और ईमान ढूढ़ते हैं...

कुछ एक खवाब बस घुट जाने को पनपते हैं...
कुछ ख्याल रिवाजो में सिमट जाने को बनते हैं...
हर बात होठो से उठी हकीकत नहीं बनती...
कुछ अरमान सिर्फ़ बुझ जाने को उफनते हैं...

क्यों जीने के ये मकसद मुझे रिझाते नहीं...
रंगरलियाँ, ऐशो-आराम क्यों मुझे भाते नहीं...
हकीकत मुझे हर एक मंजर में नज़र आती है...
दुनिया के बनाये नज़ारे मुझे नज़र आते नहीं...

भावार्थ...

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

कब के मर चुके जमीर इस दुनिया में...
और वो बाज़ार में आबरू और ईमान ढूढ़ते हैं...

bahut khoob......

manvinder bhimber said...

क्यों जीने के ये मकसद मुझे रिझाते नहीं...
रंगरलियाँ, ऐशो-आराम क्यों मुझे भाते नहीं...
हकीकत मुझे हर एक मंजर में नज़र आती है...
दुनिया के बनाये नज़ारे मुझे नज़र आते नहीं...
bahut sunder