सौ साल से जिंदगी की पगडण्डी पे चलते हुए...
उस बूढे ने आज सुबह को झमायी लेते हुए देखा...
की जब सूरज ने आँखें खोली तो सड़के तनहा थी...
बेसुध रात मद्धम उजाले मैं उबासी ले रही थी...
हवा अंधेरे मैं से छन-छन के हलकी हो गई थी...
तभी किसी बच्चे ने दरीचे से आवाज दी...
बाबा तुम फ़िर आ गए कूड़ा उठाने...
एक धमाका और खौफ हावी हो गया...
चीखो का जैसे पुलिंदा खुल गया था...
लहू और बे-इन्तहा कराहें बह निकली...
खामोशी न जाने कहाँ गुम हो गई थी...
दरीचे तक खौफ के साए पहुंचे...
बच्चे ने उस बूढे की परछाई को बिखरते देखा...
एक और जिंदगी को धमाका लील गया ...
कूडे का बोरा उसकी परछाई के उपर पड़ा था...
और जर्द कागज़ उसके उपर मंडरा रहे था...
सुबह उठ गई ,उसकी नींद गायब थी...
रात जाग कर उल्टे पैर लौट गई...
हवा बारूद से भरी भरी हो गई फ़िर से...
सौ साल से जिंदगी की पगडण्डी पे चलते चलते...
वो गुमनाम शायर भी आख़िर सो गया...
भावार्थ...
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