Monday, December 1, 2008

मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड...

मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना
जिंदगी तल्ख़ सही, ज़हर सही, सम ही सही...
दर्द-ओ-आजार सही , जब्र सही , ग़म ही सही...
लेकिन इस दर्द-ओ-ग़म-ओ-जब्र की वुसत को तो देख...
ज़ुल्म की छाँव में दम तोरती खल्कात को तो देख...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना...
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड...
जलसा-गाहों में ये वहशत-ज़दः सहमे अन्बोह...
रहगुज़ारों पे फलाकत ज़दः लोगों के गिरोह...
भूखे और प्यास से पाज़-मुर्दः सियाह-फाम ज़मीन...
तीरह-ओ-तार मकान, मुफलिस-ओ-बीमार मकीन ...
नौ’ऐ-इंसान में ये सरमाया-ओ-मेहनत का ताजाद...
अमन-ओ-तहजीब के परचम टेल कौमों का फसाद...
हर तरफ़ आतिश-ओ-आहन का ये सैलाब-ऐ-अजीम...
नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम...
लहलहाते हुए खेतों पे जवानी का समान ...
और दहकान के छप्पर में न बत्ती न धुंआ...
ये फलक-बोस मिलें, दिलकश-ओ-सीमीं बाज़ार...
ये घलाज़त ये झपट_ते हुए भूखे बाज़ार...
दूर साहिल पे वो शफ्फाफ मकानों की कतार...
सरसराते हुए परदों में सिमट_ते गुलज़ार...
डर-ओ-दीवार पे अनवार का सैलाब रवां...
जैसे इक शायर-ऐ-मदहोश के ख़्वाबों का जहाँ...
ये सभी क्यों है ये क्या है, मुझे कुछ सोचने दे...
कौन इंसान का खुदा है, मुझे कुछ सोचने दे ...
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना ...
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेर...

साहिर लुधियानवी...

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