वो धुंध भरी रात भी अजीब थी !!!
दो अजनबी कुछ फासले पे...
जाने पहचानो की तरह बैठे रहे...
अल्फाज़ दूरियां भर नहीं पा रहे थे...
बातें धुंध में जैस गुम हो रही थी...
निगाहें उसके चेहरे को ताकती ...
अपनापन तलाशती और धीरे से...
अजनबी बन जाती पहले की तरह...
रात उड़ती रही हमारे इर्द गिर्द...
और धुंध उसके साए में समां गई...
कुछ मशाल दिए बन के रह गए ...
और दुनिया के नज़ारे धुंध में खो गए...
आँखों की रौशनी थकने लगी...
सड़क कोहरे से मिटने सी लगी...
उसने कुछ कहा ...फ़िर मैंने भी...
उसने कुछ सुना....और मैंने भी...
समय रुक गया था, हमारी कार...
धुंध में बस रेंग सी रही थी...
मैंने उसकी हथेली अपनी हथेली में...
रख उसकी किस्मत पढ़नी चाही ...
उसकी लकीरों में अपनी सूरत पढ़नी चाही...
नर्म एहसास उसने मुझमें भर दिया...
दर्द मीठे एहसास में तब्दील कर दिया...
उसके गेसू जब धुंध की हवा उडा कर लायी...
मुझे खुशबू उसकी जैसे छु गई...
हर बात उसकी कही शहद बन के बह निकली...
मेरी सोच उसके खयालात में खो गई...
कब अजनबी अपने बन गए पता न चला...
फासला पल का घंटो तक पता न चला...
मेरे गहरे चाक कुछ एक पल को भर गए...
लम्हों की बूंदे यादो का समंदर बना गई...
उसकी हर बात जेहेन में धुंध सी छा गई...
मेरे जज्बात अब मेरे न रहे...
दो अजनबी अब अजनबी न रहे...
वो धुंध भरी रात भी अजीब थी !!!
भावार्थ...
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