मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
इस जीवन की चढ़ती ढलती
धुप को किस ने बाँधा
रंग पे किस ने पहरे डाले
रूप को किस ने बाँधा
काहे यह जातां करे
मन रे तू काहे न धीर धरे
उतना ही उपकार समझ कोई
जितना साथ निभा दे
जनम मरण का मेल है सपना
यह सपना बिसरा दे
कोई न संग मरे
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे
हो मन रे तू काहे न धीर धरे
साहिर लुधियानवी...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, November 14, 2008
मन रे तू कहे न धीर धरे !!!
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