आज फ़िर अपनी तन्हाई मिटाने को बाज़ार गया मैं...
कुछ और खरीदने के बहाने ही सही पर बाज़ार गया मैं...
हर मुमकिन चीज़ जो थी बाज़ार के कौनो में ले आया ...
फ़िर भी अपने घर के वीराने को भरने को बाज़ार गया मैं...
शाम ढले जब खुदा का नूर बुझ गया मेरी रूह के दिए से ...
उन झूठे उजालो की फिराक में ही सही पर बाज़ार गया मैं...
काटने दोड़ने लगी हैं सभी जानी पहचानी सी शकले मुझे...
किसी अजनबी भीड़ में गुम होजाने को फ़िर बाजार गया मैं...
समाज के ढंग, सलीके और तरीकों से मेरा जेहेन उख्ता गया ...
तो लहू बन गए उस जमीर को बेचने की खातिर बाज़ार गया मैं...
भावार्थ...
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