Saturday, December 6, 2008

जिंदगी मेरी घर बनाने में निकल गई !!!

जिंदगी मेरी घर बनाने में निकल गई...
क़र्ज़ की किश्तें चुकाने में निकल गई...

दो चार लम्हे भी ये लब मुस्कुरा न सके ...
बोझ तले हसीं भी आंखों से निकल गई...

दिन पसीने में शाम भीड़ में गुम हो गई ...
तामीर के खाब में सारी रात निकल गई...

देह ने पुराने कपड़ो की शिकायत जो की...
आह मेरी गुल्लक के गले से निकल गई...

हवेलियों में बचपन जो गुज़रा हमारा ...
जवानी दो कमरे बनाने में निकल गई...

ज़िन्दगी के खाब जो गाँव में देखे मैंने...
जिंदगानी शहर की भीड़ में निकल गई...

अपनी छत की चाहत रही मुझे उम्र भर...
जब क़र्ज़ चुका तो मेरी जा निकल गई...

जिंदगी मेरी घर बनाने में निकल गई...
कर्ज की किश्तें चुकाने में निकल गई...

भावार्थ...

No comments: