एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Wednesday, December 23, 2009
रात
अब जी चाहता है न ये आखें खुलें...
बीते कल की छेनियाँ जेहेन पे है चली...
सर्द रातो को उठा धुआं ठिठुरता ही रहा...
बोलती रही रात अंधेरे से अपनी कही...
रूठी बैठी रही चांदनी कौने में कहीं...
लड़खड़ाते बादल अलाव पर आ कर रुके...
आंच पर जमे रहे रात के पुर्जे सभी...
...भावार्थ
Monday, December 21, 2009
उस रोज !!!
नींद ने जब लोरियां सुनायीं...
रात को फूंक से बिखेर...
अँधेरे ने जो कहानियां सुनायीं...
मुझे माँ याद आई...
भोली सी वो जाँ याद आई...
तन्हाई के बादल के सीने से...
बूँद एक एक जब छलकी...
मेरे वजूद की बेपनाह आह...
बिखरी परछाई से जो छलकी...
मुझे माँ याद आई...
भोली सी वो जाँ याद आई...
दर्द के उबाल सांचे में...
मेरे जो ढलते नज़र आने लगे ....
उम्र के दराज़ इकसार साए में...
मेरे जो बनते नज़र आने लगे ...
मुझे माँ याद आई....
भोली सी वो जाँ याद आई...
खायिशें की कड़ी जुड़ कर भी...
जब किसी रहगुज़र से न जुडी...
पाक रिश्ते की एक गाँठ भी जिंदगी में...
जब किसी अजनबी से न जुडी...
मुझे माँ याद आई...
भोली सी वो जाँ याद आई...
...भावार्थ
Thursday, December 17, 2009
तेरी मुस्कराहट !!!
होठो मैं दबी...
आखों से चली...
तेरी ये मुस्कराहट....
मेरे तनहा ख्यालो पे...
खोयी सी निगाहों पे...
दिल के गिरहो पे...
बस गयी....
तेरी ये मुस्कराहट...
तुम्हारी शरारत लिए...
बेपनाह चाहत लिए...
मासूमियत मैं लिपटी...
तेरी ये मुस्कराहट...
मेरे दिल मैं बसा गम ले गयी...
कसक थोड़ी कम कर गयी...
ख़ुशी से आखें नम कर गयी...
तेरी ये मुस्कराहट...
भावार्थ...
Monday, December 14, 2009
एहसास का सौदा है !!!
जज्बात की कीमत है...
दौलत की नुमाईश में...
हर चीज़ इजारत है...
हर खाब है चाँदी का...
हर आरजू सोना है...
सदियों से ये औरत....
मर्द का खिलौना है...
जिस्मो की जवानी तक...
मजबूर मोहब्बत है...
दौलत की नुमाईश में...
हर चीज़ इजारत है...
मतलब की हर यारी...
रिश्ते हैं अदाकारी...
रंगीन मकामो पे...
हर शख्स है व्यापारी...
मक्कार इनायत है...
अय्याश शरारत है...
दौलत की दुनिया में...
हर चीज़ इजारत है...
वादों ने रुलाया है...
चाहत ने सताया है...
जो दुःख है वो अपना है...
जो सुख है वो पराया है...
जीना ही मुसीबत है...
जीना ही जरूरत है...
दौलत की नुमाईश में ...
हर चीज़ इजारत है...
निदा फाजली !!!
Wednesday, December 2, 2009
इकरार !!!
ये लौ आज फ़िर दिए में जली...
नज़रे मेरी पयाम-ऐ-इश्क लिए...
उसकी निगाहों के दरमियाँ चली...
टूक भर निहारा, दर्द न हुआ गवारा...
थाम लिया आगोश ने जकड के...
मनो बुत टूटने ही वाली हो...
ख्यालों के झरोखे से हसरत...
उसके आगोश में डूबने ही वाली हो..
परदे और झीने होते गए...
साये एक एक कर खोते गए...
दो रूह और रात की तन्हाई ...
हाथ में हाथ लिए बैठे रहे...
देखते रहे एक दूजे को....
...भावार्थ
Friday, November 27, 2009
धोखा !!!
हाथ का खेल कभी तो कभी खेल-ऐ-नज़र कहते हैं...
रिश्ते में पहली गाँठ बेवफाई की जो है ...
इस धोखे को लोग बीती हवा का असर कहते हैं...
बात बात में बात बदल जाती है लोगों की...
अल्फाजो के जाल बुनने को वो लश्कर कहते हैं...
हंस के मिलते हैं गले से जो दोस्त बन कर...
बाजुओं में छुपे उसी धोखे को अक्सर खंजर कहते हैं...
आँखों में क्या है और क्या है उनकी जुबान पे...
दिल में फरेब पालने को लोग ख़ुद का हुनर कहते हैं..
...भावार्थ
Wednesday, November 25, 2009
पल !!!
सर्द सी हवा है और तुम हमसफ़र...
हैं बेचैन बाहें , हैं मदहोश निगाहें...
खामोश लब है थमा सा ये मंजर...
सुर्ख लाल जोड़े , जो तुझको हैं ओढ़े...
हया की मूरत को न लगे ये नज़र...
..भावार्थ
Monday, November 23, 2009
गुहार !!!
या फ़िर मंजिल की झलक दिखा जिंदगी...
तमन्नाओ के भवर गहराने लगे हैं...
समन्दर के किनारे अब दिखा जिंदगी...
रात ने परदे में है छुपा रखी चांदनी...
इक नज़र अंधेरे को इसकी दिखा जिंदगी...
गिनने लगा हूँ आसमा के तारे हर रोज...
नींद को आँखों की राह अब दिखा जिंदगी...
याद दफनाई है जमीं के नीचे मैंने उसकी...
अब पत्थर हुई आँखों को न रुला जिंदगी...
आज रात भर जलाई है उसकी यादे मैंने...
दर्द उसका सर्द दिल से मेरे मिटा जिंदगी...
अब हकीकत आईने में है या परछाई है...
हकीकत की अब हकीकत दिखा जिंदगी...
जीना भी एक सदा है या बस एक जरूरत है ...
जरूरत को न ऐसी जरूरत बना जिंदगी...
दांव पे दांव जो लगाया हर बार हारा हूँ ...
मुकद्दर को मेरे जुआरी न बना जिंदगी...
दर्द ने जिंदगी बख्शी है या जिंदगी ने दर्द...
इश्क उसका जिंदगी से अब मिटा जिंदगी...
मुझे जहर दे या दे फ़िर ख़ुदकुशी की सजा...
सजा-ऐ-मोहब्बत न कर अता जिंदगी...
इन रास्तों को मेरे फूंक से उड़ा जिंदगी...
या फ़िर मंजिल की झलक दिखा जिंदगी....
....भावार्थ !!!
Saturday, November 14, 2009
आमंत्रण !!!
मधुर हवा के उस आँचल में...
है आप सभी का आमंत्रण !!!
रोरी, पुष्प , दीप के अर्पण में ...
पवित्र मिलन के इस दर्पण में ...
है आप सभी का आमंत्रण !!!
चहुँ शंख बजे और घुला हो इत्र ...
हो शुभ महूर्त तो शुभ हो सर्वत्र ...
है आप सभी का आमंत्रण !!!
अग्नि साक्षी मन्त्र के उच्चारण में ...
इष्ट,देवी देवताओं के आवाहन में ...
है आप सभी का आमंत्रण !!!
सन संवत २०६६,अगहन मास में...
अखंड द्वादशी, आयोजन ख़ास में...
है आप सभी का आमंत्रण !!!
भावार्थ !!!
रेगिस्ताँ !!!
तड़प को उसकी अंजाम नहीं देता...
दूर तक सुकूत है दूर तक तन्हाई...
लौटकर मुझे कोई आवाज़ नहीं देता...
रास्ते बनते है तो कुछ एक पल को...
पैरों के निशाँ को कोई नाम नहीं देता...
हवा टटोलती रहती है रेत के सीने को...
बावरी को मय का कोई जाम नहीं देता...
रेगिस्ताँ को कोई पयाम नहीं देता...
तड़प को उसकी अंजाम नहीं देता...
...भावार्थ
Friday, November 13, 2009
मेरा कमरा !!!
मगर फ़िर भी एक दुनिया है...
जो मुझे जन्नत सी लगती है...
तस्वीर !!!
"कार्ल मार्क्स" की तस्वीर ...
जो मुझे ख़ुद से ज्यादा औरो के लिए...
जीने का सबक देती है...
आज कल कोई नहीं पहचानता ..
इस सफ़ेद दाढ़ी वाले को...
चाय की प्याली !!!
एक चाय का कप और प्लेट...
चीनी मिटटी के हैं, मगर चीनी नहीं है...
हर बार होठ तक चाय आती है तो ...
ये जायका बढ़ा देते हैं...
किताबें !!!
इस 'किताब की दीवार' की किताबें ...
एक दूसरे को कन्धा देती हुई लगती हैं...
कुछ पढ़ी, कुछ आधी पढ़ी, कुछ अनपढ़ी ..
सबसे दोस्ती की थी मैंने जब लाया था उनको...
एक पलंग !!!
एक तकिया और सफ़ेद चादर ...
पलंग के ओढ़ने को काफ़ी हैं ...
इसपे दरी बिछी है जिसके फटे होने के निशाँ...
चादर में छिपे रहते हैं ...
शतरंज !!!
चौसठ खाने, आधे सफ़ेद आधे काले...
मेरे दोस्तों के कह-कहे यही चुप होते हैं ...
महाभारत के सारे हुनर...
चाणक्य की सारे चालें सब जीने लगती हैं...
जेहेन को चलते देखा है मैंने इस काठ पे...
डायरी !!!
ख्यालो के उबाल को निब में भर के...
पन्नो पे लाना अजीब सुकून देता है...
कुछ पल को सही ये डायरी मेरी हमसफ़र है...
साँस लेने के बाद शायद यही सबसे करीब है मेरे...
तन्हाई !!!
कार्ल मार्क्स के ख्यालो को तोलने को ...
चाय की प्याली से चुस्किया लेने को ...
किताबो में भरे ख्यालो को टटोलने को...
पलंग पे थकान के बोझ को छोड़ने को...
शतरंज की चालें खेलने को...
डायरी में सोच की स्याही उडेलने को...
शायद सब से जरूरी है...ये तन्हाई
मैं और मेरी तन्हाई बनाते हैं उस जन्नत को...
मेरे कमरे की चार दीवारी में...
..भावार्थ
Tuesday, November 10, 2009
सिर्फ़ तेरे लिए !!!
जो जेहेन में उमडे मेरे ...
मैंने थामे रखे है ...
मोहबत के हर्फ़ ...
जो मैंने उकेरे नहीं कभी ...
पन्नो में छुपा रखे हैं ...
बे-इन्तेआह इश्क की तलब ...
जो मेरे आगोश को हुई...
मैंने दिल में दबा रखी है...
इज़हार के अल्फाज़ ...
जो जुबान कह न सकी...
मैंने लबो में समां रखे हैं...
सिर्फ़ तेरे लिए...
मैंने मोहब्बत महफूज़ रखी ...
सिर्फ़ तेरे लिए...
तू जिंदगी बन के आए ...
और जी सकूं सभी एहसासों को...
...भावार्थ
Sunday, November 8, 2009
चेहरा
याद है
एक बार मेरे
दोनों हाथ पकड़ कर
तुमने
अपने चेहरे पे
रख लिए थे
बस
उसी वक़्त मैंने
चुरा लिया था
तुम्हे
अब तक
इन्ही हाथों में
संभाल
रखा है
जब भी
खुश होती हूँ
उदास होती हूँ
मैं
यही हाथ
अपने चेहरे पे रख लेती हूँ
तेरे चेहरे
से
अपना चेहरा
ढक लेती हूँ
Saturday, October 24, 2009
दूधिया खाब !!!
Wednesday, October 14, 2009
दिए का सफर !!!
उसे गीले हाथो से साधो...
चाक को तेजी से घुमाओ ...
और नन्हे नन्हे दिए को जीवन दे दो...
यही दिए जो मत-मैली मिटटी से बने हैं...
अभी आग में घंटो पकेंगे...
मिटटी फ़िर आग का रंग ओढ़ लेगी...
गीली सीरत उसकी पत्थर सा मोड़ लेगी...
ये तो बस खांचा है कंकाल है...
कितने ही दिए ऐसे बनकर ढेर में गुम हैं...
मगर कुछ दिए जिनके सीने में घी उडेल कर...
उनमें जब रुई की बाती पिरोई जाती है...
पूजा की आंच जब उसे दी जाती है...
तब वो दिया उजाला बिखेरने लगता है...
राम के घर लौटने की खुशी में झूमने लगता है...
मिटटी से उजाले की कहानी युही कही जाती है...
जगमगाते दियो की माला ही दीपावली कही जाती है...
...भावार्थ
(आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !!!)
Saturday, October 10, 2009
दुनिया थकेली है साली !!!
गले में टाई लपेटे मजदूर खड़े हैं ...
खायिशों में ख़ुद की मजबूर बड़े हैं...
शेरो के मुँह में नकली दांत जड़े हैं...
दुनिया थकेली है साली !!!
नौकरी में है खड़े सर को झुकाए ...
कहीं हरे नोटों की गड्डी कट न जाए...
यस के सिवाय मुँह से कुछ निकल न जाए...
दुनिया थकेली साली है
दोस्तों में हैं जो बेवजह मुस्कुराते...
तनहा रिश्तो को वो हर रोज निभाते...
है ख़ुद करते जो उसी पे एतराज जताते....
दुनिया थकेली है साली !!!
कर्ज से अपना स्टेटस बनती हैं ये ...
लाइन में खड़े-२ जिंदगी बिताती है ये ...
सदियों में कहीं जा के मुस्कुराती है ये ...
दुनिया थकेली है साली !!!
...भावार्थ
Monday, October 5, 2009
तुम एक याद हो !!!
और यादें कभी भूली नहीं जातीं...
उन लम्हों का एहसास हो तुम...
जो मोहब्बत की फिजा लाये थे...
उन हसीं ख्यालो का निशाँ हो तुम...
जो दिल-ओ-जेहेन पे कभी छाए थे...
तुम एक याद हो !!!
और यादें कभी भूली नहीं जाती !!!
दिल के कौने में गुम हो तो क्या...
तन्हाई में तुम ही तुम रहती हो...
वक्त क्या उम्र देता हमारे इश्क को ...
याद बनकर अब सदा साथ रहती हो...
तुम एक याद हो !!!
और यादें कभी भूली नहीं जातीं...
खामोश आखें जब युही नम हो जाएँ ...
वो तेरी याद आने का सबब होता है...
किसी बहाने से मुस्कुराने लगता हूँ...
ख़बर लोगो को नहीं होती ये जब होता है..
तुम एक याद हो !!!
और याद कभी भूली नहीं जातीं ...
तुझे भुलाने की कोशिश में...
कई बार जेहेन को जलाया है मैंने.....
फ़िर आंसू से बुझाया है उसे...
और तेरी यादो को फ़िर जलाया है मैंने...
तुम एक याद हो !!!
और याद कभी भूली नहीं जातीं !!!
...भावार्थ
Saturday, October 3, 2009
मैं शायर बन गया !!!
तन्हाई में ख़ुद से युही बोलते -2...
स्याही से दुनिया के राज खोलते-2...
मैं शायर बन गया !!!
उसकी सूरत को सांचे में ढालते-2...
उसके खाबो को आंखों में पालते-2...
उसकी यादो को सीने में संभालते-2...
मैं शायर बन गया !!!
खुदकुशी में जिंदगी की आस लिए...
कुछ बिखरे सपने अपने ख़ास लिए...
टूटे रिश्ते के निशाँ कुछ पास लिए...
मैं शायर बन गया !!!
लहू में मज़हब के रंग को छांटते-२...
मुर्दों के जंगल मैं जिंदगी तलाशते-2...
पत्थर मैं खुदा की शक्ल तराशते-2 ...
मैं शायर बन गया !!!
मशीन मैं जिंदगी झोंकते -२...
बहरो की दुनिया मैं भोंकते-2...
अजनबी दोस्तों से चोंकते-२
मैं शायर बन गया !!!
...भावार्थ
Wednesday, September 30, 2009
आगाज़ !!!
सुबह खिलखिलाने लगेगी...
शाम सवांर जाने लगेगी....
रात मचल जाने लगेगी...
हवा उमड़ जाने लगेगी....
खुशी नज़र आने लगेगी....
बदरी बरस जाने लगेगी...
आओगी जब जिंदगी में तुम ...
...भावार्थ
Thursday, September 24, 2009
जिद्दो-जहद !!!
पेन को साधे हुए...
डायरी के पन्नो को निहारता...
अपनी बालकनी में बैठा रहा...
सोचता रहा क्या लिखूं...
असल में सोचता रहा ...
की आख़िर क्या क्या लिखूं...
सुहानी यादो के अफ़साने ...
अल्फाजो में बिखेरूं कैसे....
तुझसे जुड़ी सौगातों को...
मन के धागे से बिखेरूं कैसे...
तेरी मूरत एक एक हर्फ़ बनकर कैसी लगेगी...
सादगी तेरी स्याही में घुल कर कैसी लगेगी...
नजाकत एक एक अल्फाज़ पे छायेगी...
तेरी हर एक अदा मेरे लिखने में आएगी...
मैं संभल पाऊँगा...
शायद यही सोच कर मैंने कलमा रख दी...
सोचता हूँ तू कविता बनी रहे ...
बस मेरे ख्यालों में महफूज़ रहे....
बस मेरे लिए...
...भावार्थ
Monday, September 21, 2009
मेरे साथ चल !!!
जो तू चल सके तो मेरे साथ चल...
तेरी बाहों में हो जो मेरा जहाँ...
गम का वहां फ़िर न होगा निशाँ..
जिंदगी का है खाब तेरा साथ हो...
जगमगाते से दिन हो चांदनी रात हो ...
तुझसे शुरू हो मेरा सिल सिला...
फ़िर जिंदगी से न मुझको गिला...
तू फ़िर आज कह दे मेरी चाह है...
मंजिल तू ही शोना तू ही राह है...
ऐसा लगता है जैसे न आएगा कल...
जो तू चल सके तो मेरे साथ चल...
...भावार्थ
Saturday, September 19, 2009
आस !!!
शहरो में गावं सी आस लगाते लोग...
दो रूह बनाती मोहब्बत की दुनिया को...
उसमें भी क्या क्या नुक्स जताते लोग...
खफा है चंद अपनोंसे भरी इस दुनिया से ...
खाली भीड़ की तरफ़ हाथ बढाते लोग...
उनकी लाज शर्म को भूल चुके है सब...
मिटटी से बस अंधी प्यास बुझाते लोग...
पीली मिटटी में कपास उगाते लोग...
शहरो में गावं से आस लगाते लोग...
...भावार्थ
Friday, September 18, 2009
र०-ब-रू !!!
समय मेरा कांच सा बिखर चुका है ...
बिखरे रंग बिरंगे कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते है...
कभी संजीदगी को टटोलते...
तो कभी तन्हायी को उकेरते....
कभी छलकती प्यास को देखते...
तो कभी पलते मेरे खयालो को देखते...
मेरे बिखरे समय के कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू करते हैं...
यु तो होंसले की गठरी मैंने सीने से बाँध रखी है...
जो बर्फीली रात में धडकनों को गर्म रखती है...
और मेरे बचपन की रातो में संजोये सपनो की चाह...
मेरे इरादों को नए आयाम देने का अरमान रखती है...
मैं राह-ऐ-मंजिल पे गिर गिर कर संभल रहा हूँ ...
फ़िर भी उम्मीद की बैसाखी लिए नंगे पाँव चल रहा हूँ ...
कभी कभी सब थमजा जाता है जो बस दौड़ता रहता है...
कोई तो है जो मेरी राहो को आ कर तोड़ता रहता है...
में भी बिखर जाता हूँ समय के साथ...
फ़िर मेरे बिखरे समय के टुकड़े ...
मुझे मेरे अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...
और में ख़ुद को टटोलता , अध्-बुनी में ख़ुद से बोलता...
चला जा रहा हूँ उस राह पे जिसका नामो निशाँ नहीं है...
एक मूरत है उस मंजिल की वो भी लफ्ज़-ऐ-बयाँ नहीं है...
वो भी मगर बिखरी पड़ी है समय के टुकडो के इर्द-गिर्द...
वही बिखरे हुए कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...
...भावार्थ
Monday, September 7, 2009
भावार्थ
सुख के किनारे, गम के ये धारे....
चली जा रही नदिया किसके सहारे....
सुख के किनारे ,गम के ये धारे...
शम्मा रात की बुझ सी गई है...
चांदनी सी थी वो बुझ सी गई है...
कहाँ जायेंगे ये अम्बर के तारे....
सुख के किनारे गम के ये धारे...
रास्तो में बिखरे हैं मंजिलों के निशाँ....
बुत बन गए हैं जो थे कभी कारवां...
दिखाई न देते जिंदगी से हारे...
सुख के किनारे गम के ये धारे...
अपनों के तिनके बिखरने लगे हैं...
एक एक कर सब राह बदलने लगे हैं...
अपनी तन्हाई से इलने लगे हैं ये सारे ...
सुख के किनारे दुःख के ये धारे...
सुख के किनारे, दुःख के ये धारे...
चली जा रही नदिया किसके सहारे ...
...भावार्थ
Wednesday, September 2, 2009
धुआं नहीं उठा !!!
रातें गई शामे गई...
मगर ये धुआं नहीं उठा...
ऐसा नहीं है की आग बुझ गई है...
ऐसा भी नहीं है की ख्याल की आंच नहीं है...
जेहेन में बेचैन सवालों का सेलाब नहीं है...
ये जो अल्फाजो के उपले जो गीले से थे ...
थोड़ा वक्त ले रहे थे सुलगने में..
मैंने उनमें एहसास का तेल छिड़क दिया है...
अब देखना कैसे धधकते हैं ये ...
और कैसे उठता है धुआं...
मेरे दिल के कौने से कोई नज़्म बन कर...
भावर्थ
Saturday, August 29, 2009
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे !!!
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे...
बेखुदी इतनी बढ़ा दो के न कुछ याद रहे...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे ...
दोस्ती क्या है, वफ़ा क्या है मुहब्बत क्या है...
दिल का क्या मोल है एहसास की कीमत क्या है...
हमने सब जान लिया है के हकीकत क्या है...
आज बस इतनी दुआ दो के न कुछ याद रहे...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे ...
मुफलिसी देखी, अमीरी की अदा देख चुके...
गम का माहौल, मसर्रत की खिजा देख चुके...
कैसे फिरती है ज़माने की हवा देख चुके...
शम्मा यादों की बुझा दो, के न कुछ याद रहे...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे...
इश्क बेचैन खयालो के सिवा के कुछ भी नही...
हुस्न बेरूह उजालों के सिवा कुछ भी नही...
जिंदगी चाँद सवालों के सिवा कुछ भी नही ...
हर सवाल ऐसे मिटा दो के न कुछ याद रहे ...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे ...
मिट न पायेगा जहाँ से कभी नफ़रत का रिवाज...
हो न पायेगा कभी रूह के ज़क्मों का इलाज...
सल्तनत ज़ुल्म, खुदा वहम मुसीबत है समाज...
ज़हन को ऐसे सुला दो के न कुछ याद रहे...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे...
बेखुदी इतनी बढ़ा दो के न कुछ याद रहे...
आज इस दर्जा पिला दो के न कुछ याद रहे...
साहिर लुधियानवी...
Saturday, August 15, 2009
ऐ मेरे वतन के लोगो !!!
तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का
लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर
वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो -२
जो लौट के घर न आए -२
ए मेरे वतन के लोगों
ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो कुर्बानी
जब घायल हुआ हिमालय
खतरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लादे वोः
फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा
सो गए अमर बलिदानी
जो शहीद...
जब देश में थी दिवाली
वोः खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में
वोः झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वोः आपने
थी धन्य वोः उनकी जवानी
जो शहीद ...
कोई सिख कोई जात मराठा
कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पे मरनेवाला
हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर
वोः खून था हिन्दुस्तानी
जो शहीद...
थी खून से लात-पथ काया
फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा
फिर गिर गए होश गँवा के
जब अंत-समय आया तो
कह गए के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों
अब हम तो सफर करते हैं
क्या लोग थे वोः दीवाने
क्या लोग थे वोः अभिमानी
जो शहीद...
तुम भूल न जाओ उनको
इस लिए कही ये कहानी
जो शहीद...
जे हिंद जे हिंद की सेना -२
जे हिंद, जे हिंद, जे हिंद
...प्रदीप
Saturday, August 1, 2009
निशाँ !!!
फूंक दिया उपलों के टेल...
मिटा दिया हमेशा के लिए...
निशाँ मगर बाकी हैं उसके...
मेरी बाहों में उसकी खुशबू...
मेरी रातो में उसकी यादें...
मेरे जेहेन में उसके ख़याल...
ऐसे तैरते हैं जैसे वो जिन्दा है...
दो गज जमीन के नीचे....
सुलगती लकडियों के दरमियान...
उड़ती हवा के इर्द गिर्द...
भावार्थ ...
Friday, July 31, 2009
काले-काले साए हैं.
उन बातों के,
अल्फाजों के
कुछ
काले-काले साए हैं।
अपनी सफ़ेद हथेलियों
पे
जब तुमको ढूंढा करती हूँ,
ये तीखी लकीरें
हाथों में
गहरे खोदती जाती हैं,
फिर तकदीरें चो-चो कर
खोखला सा
कर जाती हैं,
और
हाथों में
जो बसता है
जो बचता है ,
ये
काले-काले साए हैं।
कभी कभी
शाम के ख्वाब
रेत
की तरह जो
उड़ने लगते हैं
आँखों में सूखे पत्ते
बेलों से चढ़ने लगते हैं,
और काली पुतली आँखों की,
एकदम पीली पड़ जाती है,
ये
उनमें भी भर जाते हैं,
फिर सारे ख्वाब एक-एक करके,
दम घुटने से मर जाते हैं,
ये
काले-काले साए हैं।
क्या तुमको भी ये सताते हैं,
जब
सूनी झुलसती रातों में
अपना भी रंग नहीं दिखता,
तब अँधेरे से गहरे
ये
चीखते चिल्लाते से हुए
हर और
टूटते रहते हैं,
कानों में धंसते जाते हैं,
ये काले-काले साए हैं।
उन बातों के
उन गातों के
अल्फाजों के
ये.........
Thursday, July 23, 2009
न था कुछ तो खुदा था,
डुबोया मुझे को होने ने, न होता "मैं " तो क्या होता
हुआ जब गम से यूँ बेहिस तो गम क्या सर के कटाने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़नाजो पर धरा होता
हुई मुद्दत के 'ग़लिब' मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यू.न होता तो क्या होता
...मिर्जा गालिब
Thursday, July 16, 2009
कुछ !!!
रेत में पानी के बीज बोता रहा...
दिल्लगी खुदा ने कुछ ऐसी की ...
अपनों को इक इक कर खोता रहा...
वफ़ा में उसकी थी एक गाँठ सी...
पाक रिश्ते के तले में रोता रहा...
रास्ते बोलते रहे मैंने सुना ही नहीं...
मैं मंजिलो पे तन्हाई ढोता रहा...
जब ख़ाक हो चुकी हर चाह थी ...
खुदा दिल में अरमा पिरोता रहा..
...भावार्थ
Wednesday, July 15, 2009
अगर !!!
आसमान अगर बह जाए तो क्या होगा...
धरती ने खीच रखे है हर चीज़ दुनिया की...
समंदर अगर रेत बह जाए तो क्या होगा...
चमक इन तारो से है या सूरज से सबकी...
ये सूरज साँस बन के रह जाए तो क्या होगा...
दीवारें हो तो बस इस सुहानी हवा की हों...
दर्द अगर फूकं से उड़ जाए तो क्या होगा...
खुशी के गुच्छे बाज़ार में मिलने लगे बस...
और चाहते खिलोने बन जाए तो क्या होगा...
अपने पलक झपकते आपको थाम ले आकर...
आँखें मोहब्बत की बन जाए तो क्या होगा...
खाब हर एक हकीकत की रूह बन जाए...
जिंदगी अगर खाब बन जाए तो क्या होगा...
भावार्थ
Monday, July 13, 2009
मेरा हमसफर !!!
धुंधली सी ये आस है....
शायद वो मेरे पास है...
मेरी यादो में महफूज़...
मेरा हमसफ़र....२
उसकी बाहों के निशाँ हैं ....
मेरे दिल के दरमियाँ हैं ....
मेरे आगोश में महफूज़....
मेरा हमसफ़र...२
वो शख्स कुछ ऐसा है....
वो मेरे अक्स जैसा है...
इन आयिनो में महफूज़...
मेरा हमसफ़र...२
जुदा हो कर भी जुदा नहीं...
खुदा हो कार भी खुदा नहीं..
मेरे ताबीज़ में महफूज़...
मेरा हमसफ़र...२
भावार्थ
Saturday, July 4, 2009
यु तो !!!
अश-आर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक की हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख्स कि यादों को भुलाने के लिए हैं...
जाँ निशाँ अख्तर ...
सिला !!!
ख़ुद से महरूम हो चुका हूँ...
आशियाँ बसाने निकला था....
हर एक तिनका खो चुका हूँ...
तलब थी मंजिले पाने की...
कब की ख़ाक हो चुकी है...
आग थी कर गुजरने की...
वो कब की राख हो चुकी है...
एक दिया था मोहब्बत का ...
बेवफाई की आंधी ने बुझा दिया...
उसकी यादो की लौ बची थी....
उसको मैंने तन्हाई में गुमा दिया...
कतरा कतरा जिंदगी अब राहो में....
और जेहेन मेरा तरस रहा है....
प्यास लबो पे आ कर मिट चुकी...
और ये बादल अब बरस रहा है...
भावार्थ...
ये ज़िन्दगी !!!
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से निकल रही है
तुम्हारे लफ्जों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूं ही शक्लें
बदल रही है
बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
कलम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आंखों की रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा...
निदा फाजली...
सौतेले सपने !!!
मुझे कुछ एक ऐसा पाएगी...
एक छोटे से घर के आस पास मेरा एक लॉन होगा...
जिसमें रोज सुबह सूरज आ कर दस्तक देता हो...
अखबार वाला, दूध वाला उधर से गुजरता हो...
लोग कहते हो कोई भला मानुस यहाँ रहता है...
घर मैं हर एक चीज़ जरूरी हो...
पानी की बिजली की न कोई मजबूरी हो...
लॉन से लगा छोटा सा बाग़ हो...
जहाँ दिन मैं गेंदे के और रात को चमेली महके...
घर के पीछे जहाँ कपड़े सूखते हों कोयल चहके...
पपीते के फल दीवारों से लटके आयें...
कुछ दोस्त हर महीने मिलने आयें...
खूब देर तक उनसे सुने कुछ उनको सुनाये...
कुछ एक गीत लिखूं कुछ एक कहानी बन निकले...
चाय की प्याली से बात मीठी निराली निकले...
हर मंगल मदिर जाएँ, प्रसाद बाँटें प्रसाद खाएं...
आपा धापी दूर दूर तक न हो...
दफ्तर चार कदम पर पहुंचूं...
सब लोग उठ खड़े हो जायें...
उनसे हल चाल पूंछूं उनके गम लूँ ...
अपने काम पर पूरा मन दूँ....
न बुरा करून, न बुरा सुनूं...
बुराई से जरा दूर ही रहूँ...
सुबह के चार बज गए और नींद खुल गई...
खाब के खिलोने कहा खो गए...
ये सपने थे जो सौतेले हो गए....
...भावार्थ
हकीकत मैं चार बजे उठ कर जाता हूँ...
पानी के नल न निकला जाएँ उसे भर लाता हूँ...
घर के दो कमरों मैं सात लोग सो रहे हैं...
घर के दरवाजे पे रास्ता बहता है...
उसी खूँटी पे नल गढा है....
पानी के तीन चार कनस्तर कमरे तक चिपके बैठे हैं...
दूसरे कमरे के अगले हिस्से मैं रसोई गैस है...
तवे और बर्तन एक के ऊपर एक कर रखे हैं...
आटे के डिब्बे पे सब्जी की टोकरी है...
शुकर है गैस के आस पास दीवार है...
जो चीज़ टंग सकती थी टंगी है...
करची, चम्मच,लाईटर, छलनी वहीँ टंगी हैं...
हर रोज सुबह फोल्डिंग पलंग उठता है ...
तब वहां रसोई घर का सामान बिछता है...
बस एक पूजा घर है जिसे कोई नहीं छेडता...
चाट न होती तो बड़ी मुश्किल होती...
हर वो चीज़ जो कभी कभी जरूरत की है...
वहां न होती तो फ़िर कहाँ होती...
सात बजे जब पहली बस पकड़ता हूँ...
तब गली मैं कोई नहीं जागता...
अनजान मुसाफिर की तरह जीता हूँ...
आधी नींद मैं दफ्तर पहुँचता हूँ...
हर कोई अपने मैं गुम सा है...
मैं कुछ एक फाईल को पलटता हूँ ...
फूहड़ चुटकुलों से बचता बचता...
अपना बचा हुआ समय काटता हूँ...
टूटा हुआ छाता और टिफिन तांगता हूँ...
और निकल पड़ता हूँ तीन घंटे लंबे रास्ते पे...
जो मुझे घर ले कर जाता है...
रात कब की हो चुकी होती है जब पहुँचता हूँ...
मेरी पत्नी की आँखें होती हैं मेरे लिए बस...
वो हाल पूछ कर खाना खिलाती है...
और धीमे धीमे पंखा हिलती है...
कहती है बिल इस महीने बहुत आया है...
सोने के लिए छत पर बिस्तर बिछाया है...
और हकीकत से हम रू-भी-रू हो गए...
वो जो सपने थे सब सौतेले हो गए...
...भावार्थ
Thursday, July 2, 2009
साँप !!!
इसका फन उठता रहा और में बहता रहा...
मुझे कमजोर होने का एहसास होता रहा...
की जितना दूध इसको पिलाओगे...
प्यास को इसकी उतना ही बढाओगे...
कई बार जहर इसका जेहेन तक आया है....
मेरे उसूलों को इसने कई बार मिटाया है...
इक जंग थी वो जब में जवा था...
इसका सुरूर इस कदर चढा था...
रात बीन बन कर इसको लाती थी....
बेवजह मेरी नीयत बिगड़ जाती थी...
तन्हाई में मुझे अक्सर काटा इसने...
सोच और खयालो को ढाका इसने...
मैं और साँप कितनी रात लिपटे रहे...
जहरीला जामा मुझपे लाजवाबी रहा...
जिंदगी मैं साँप मुझपे इसकदर हावी रहा...
भावार्थ...
पाप धुल गए !!!
गोवेर्धन की परिक्रमा लगाते छोटे छोटे पत्थर बहुत चुभे...
मगर कलेजे में एक नन्हा सा पत्थर मेरे सब पाप धुल गया...
इतने आंसू बहे की लगा ये समंदर भी मेरे भीतर रहता था...
माँ ने हाल क्या पूछ लिया छलक पड़ा बस 'उबाल' की तरह....
नसों मैं दर्द बहे तो लगता है कोई अपना साथ हो...
दुनिया के दर्द को तनहा सह सकते हो मगर इसे नहीं....
कोई हाथ सहलाता रहे, बालो मैं उँगलियाँ फेरता रहे...
और जैसे दर्द से ध्यान ही हट जाए कुछ एक पल को...
मगर चट्टान भी आख़िर पिघलती है...
तन्हाई के लावे मैं दर्द रफ़्तार पाता है...
और कलेजे की नस आँखों मैं असर छोड़ जाती है...
मैं करवटे बदलते हुए , अपनों को तरसते हुए ...
शुक्र गुजार था खुदा का की चलो 'पाप' धुल गए...
भावार्थ
Sunday, June 28, 2009
ताप !!!
जमीं के होठ भी सूखने लगे...
मुरझा गए इन बगीचों के चेहरे...
समंदर भी बूँद को टूकने लगे...
प्यास अब साँसों को लग रही ...
खून के गुब्बारे भी फूटने लगे...
दिन से तो कब से नाराज़ थे वो...
बच्चे अब रातो से भी रूठने लगे...
अमुयें कि छाया भी धधक रही...
कच्चे आम भी साखो से टूटने लगे...
रास्ते है जल रहे मंजिले सुलग रही...
हौसलों के इरादे भी छूटने लगे...
तुम दिन में आग फूकने लगे...
जमीं के होठ भी सूखने लगे...
भावार्थ
२७ जून २००९
तापमान: ४८ डिग्री सेल्सिउस
एहसास !!!
औरो के लिए जीने का दौर कबका गुजर चुका है...
भीड़ में तरसते रहते हैं लोग हमसफ़र के लिए...
तन्हाई में रोते हुए गला इनका भी भर चुका है...
घर, कार और बाज़ार में है इतना उलझा हुआ...
इक इक सिरा जिंदगी का धागे सा उजर चुका है...
मोबाइल, ऐ.सी,इंटरनेट बिना जिंदगी अधूरी है...
ख़ुद के इजात चीजों से पंख ख़ुद के कुतर चुका है...
अपनी B.H.K में सब जिन्दा हैं यु तो कहने को...
मगर ख़बर नहीं उनको कि पड़ोसी मर चुका है...
भावार्थ
Wednesday, June 24, 2009
तू !!!
दुआएं क्या हैं और मांगी हुई मन्नत क्या हैं...
लम्हे भी जिंदगी जीते है जब तू होती है...
चराग बुझ जाते हैं रौशनी इतनी होती है...
हर बाब में मेरे दिल के सिर्फ़ तेरा जिक्र है...
भूल गया खुदा को, ख़ुद को सिर्फ़ तेरी फ़िक्र है....
बूँद से कहीं नाज़ुक हो, ओस से भी नवेली हो...
मोहब्बत में लिपटी निशानी कोई अलबेली हो...
ओज क्या है, निखत क्या है, ये रंगत क्या है...
तुझसे मिलकर ये जाना है कि जन्नत क्या है...
भावार्थ...
पहेली !!!
मगर मैं फ़िर भी इसे सुलझाने निकल पड़ा...
जिंदगी एक राह सी है....
हार और जीत इसके दो पत्थर हैं...
जो बीच बीच मैं गढे हैं...
इंसान इनके बीच उम्मीद लिए फिरता रहता है...
अपनों से बंधा कभी जन्नत देखता है...
कभी उन्ही से खफा तनहा बैठता है...
बेगानों से यु तो उसे कोई मेल नहीं है...
पर दोस्त, हमसफ़र,राज दार उसे इन्ही मैं मिलते हैं...
अपने और बेगानों की दूरी सिर्फ़ जेहेन में है असल में नहीं...
पर फ़िर सोचता हूँ की इसमें सपने भी हैं,
चाहत भी है, कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी है...
तो ये जिंदगी इक राह भर नहीं है...
ये जिंदगी एक नाव है...
जो समय में तेरती रहती है...
समय एक ऐसा दरिया है जिसमें बहाव बढ़ता जाता है...
हिलोरे तो आती है जाती हैं, मगर बहाव धीमे धीमे...
उसे उसी दरिया में डुबो देता है जिसमें वो तैरने निकली होती है...
उसमें सवार उस जिंदगी के कई तिनके एक एक कर...
उस नाव को छोड़ देते हैं तो नए तिनके किनारों से निकल...
उसके साथ साथ बहने लगते हैं...
नाव पुराने तिनको को भूल नए तिनको से जुड़ जाती है...
भूलने और जुड़ने के दौर में कब वो डूब जाती है....
उसको ख़बर भी नहीं होती, बस एक मलाल होता है...
की ऐ काश !! वो तिनके जो उससे जुड़े थे उसके साथ ही रहे होते...
जिनको उसने अपना कहा उसके साथ ही बहे होते...
नाव को ये हकीकत भी सामने आई...
की हिलोरे एहसास हैं, हकीकत नहीं...
एहसास जो हमारे जेहेन में बुना जाता है...
एक लम्हे भर की जिंदगी है...
नाव है जिंदगी या फ़िर राह कोई नवेली है...
में हार गया जिंदगी आज भी एक पहेली है...
भावार्थ...
Tuesday, June 23, 2009
इश्क मुझको नहीं !!!
मेरी वेह्शत तेरी शोहरत ही सही
कट्टा कीजे न ताल्लुक हमसे
कुत्च नहीं है तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वेह मजलिस नहीं खल्लत ही सही
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
गैर को तुझसे मोहब्बत ही सही
अपनी हस्ती हे से हो जो कुछ हो
आगाही गर नहीं गफलत ही सही
उम्र हरचंद की है बर्के-खरं
दिल के खून की फुर्सत ही सही
हम कोई तरके-वफ़ा करते हैं
न सही इश्क मुसीबत ही सही
कुछ तो दे ऐ फाल्के-न-इन्साफ
आहो फरियाद की रुखसत ही सही
हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनयाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
..मिर्जा गालिब
Sunday, June 14, 2009
न कर पाओगे !!!
इसको मिटाओगे मुझको न मिटा पाओगे...
पाव भर भुने चने मेरे बस्ते में रहते हैं...
चाहोगे भी तो खाने में जहर न मिला पाओगे...
सिर्फ़ तन्हाई मेरी अपनी है इस दुनिया में ...
मेरी दुनिया चाह कर भी न मिटा पाओगे ...
बेचिराग जिंदगी मैंने युही जी है अब तक...
खौफ अंधेरे का मुझको न दिखा पाओगे...
मैं नसीब अपना माथे पे लिए फिरता हूँ...
मजहबी रंग कोई मुझपे न चढा पाओगे...
अज़ल को मैंने करीब से देखा है लोगो...
मौत का मंजर मुझको न दिखा पाओगे...
भावार्थ...
Friday, June 12, 2009
सुबह !!!
सिली सिली सी सुबह उबलने लगी...
फुदकते लोग, चहकते पंछी,मचलते हौसले...
कुछ एक पल को थम गए...
यकायक ही बादल नरेश गुजरे ....
बड़ी सी परछाई लाये...
और सुबह को उढा दी पूरी की पूरी...
फुदकते लोग,चहकते पंछी,मचलते हौसले...
कुछ एक पल को जी गए...
भावार्थ
जब मुकद्दर बन के मिलता है !!!
वही मुझसे अजनबी बन के मिलता है।
रातें सदियाँ बन जाती हैं जिसके लिए।
वो मुझसे एक लम्हा बन के मिलता है।
जिंदगी जब एक तमन्ना बन के जीती है।
वो मुझसे एक हादसा बन के मिलता है।
में जिसके लिए दुनिया के दुःख पी बैठी।
वो मुझे मोड़ पे 'जोगी' बन के मिलता है।
किस्मत कोसूं तो कभी कोसूं ख़ुद को।
वो मुझे मिलता है मुकद्दर बन के मिलता है।
भावार्थ...
Thursday, June 11, 2009
हाथ से छु के इससे रिश्तों का इल्जाम न दो...
सिर्फ़ एहसास है यह, रूह से महसूस करो ...
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो...
हमने देखि है उन आंखों की महकती खुशबू
हाथ से छु के इससे रिश्तों का इल्जाम न दो …
हमने देखि है उन आंखों की महकती खुशबू
प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
एक खामोशी है, सुनती है कहा करती है...
n यह बुझती है, न रूकती है, न ठहरी है कहीं
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है
सिर्फ़ एहसास है यह, रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो…
हमने देखि है....
मुस्कराहट से खिली रहती है आंखों में कहीं...
और पलकों पे उजाले से रुके रहते हैं...
होंठ कुछ कहते नहीं, कांपते होंठों पे मगर...
कइतने खामोश से अफसाने रुके रहते हैं...
सिर्फ़ एहसास है यह, रूह से महसूस करो...
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो...
हमने देखि है उन आंखों की महकती खुशबू...
हाथ से छु के इससे रिश्तों का इल्जाम न दो...
हमने देखि है…
gulzaar
Wednesday, June 10, 2009
अलाव...गुलज़ार
रात भर हमने अलाव तापा।
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ काटी।
तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते तोडे।
मैंने जेबों से निकाली सभी सुखी नज्मे।
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले।
अपने इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे।
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी तुमने।
पलकों पे नमी सूख गयी थी, सो गिरा दी।
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको।
काट के दाल दिया जलते अलावों मैं उसे।
रात भर फूंकों से हर लौ को जगाये रखा।
और दो जिस्मों के इंधन को जलाये रखा।
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हुमने।
गुलज़ार...
Monday, June 8, 2009
अपनी दुनिया !!! साहिर लुधियानवी...
यह न समझो की ये आज की बात है।
जब से दुनिया बनी जब से धरती बसी।
हम युही ज़िन्दगी को तरसते रहे।
मौत की आंधियां घिर के छाती रहीं।
आग और खून के बादल बरसते रहे।
तुम भी मजबूर हो हम भी मजबूर हैं।
क्या करें यह बुजुर्गो की सौगात है।
हम अंधेरे की गुफाओं से निकले मगर।
रौशनी अपनी सीनों से फूटती नहीं।
हमने जंगल सहरो में बदले मगर।
जंगल की तहजीब हमसे छूटती नहीं।
अपनी बदनाम इंसानियत की कसम।
अपनी हैवानिउयत आज तक एक साथ है।
हमने सुकरात को जेहर की भेट दी।
और ईसा को सूली का तोहफा दिया।
हमने गाँधी के सीने को चलनी किया।
केनेडी को जावा खून से नहला दिया।
साहिर लुधियानवी...
Sunday, June 7, 2009
क्या करुँ !!!
मुझे यादें बनाना आता नहीं...२
तुम ही बताओ में क्या करुँ...
सदा मुस्कुराओ कहते हैं सब...२
युही मुस्कुराना आता नहीं...२
तुम ही बताओ में क्या करुँ...
दिल में है मेरे जो एहसास ....२
उनको जाताना आता नहीं...२
तुम ही बताओ में क्या करुँ...
दर्द है दिल में मेरे ये इतना...२
अश्क बहाना आता नहीं...२
तुम ही बताओ में क्या करुँ...
लम्हों से बनती है जिंदगी...२
मुझे यादें बनाना आता नहीं...
तुम ही बताओ में क्या करुँ...
भावार्थ...
Tuesday, June 2, 2009
जनवरी आ गई !!!
अब्र मेरे पार्क में आ ठहर गए हैं ...
सूरज को मौत दे दी शायद ...
लैंपपोस्ट रौशनी के घर बन गए हैं ...
जनवरी आ गई !!!
भावार्थ...
Monday, June 1, 2009
बस यही सवाल है !!!
या बनी रहूँ अजनबी कोई...
बस यही सवाल है...
तेरे सपनो की चादर ओढूँ ...
या जिंदगी बना जी लूँ तुझे...
बस यही सवाल है...
तेरे एहसासों को दिल में रखूँ...
या तेरे साथ हर लम्हा जियूं...
बस यही सवाल है...
जो है मन में उसे ख़त में लिखूं...
या उन लिखे खतो को तुझे भेजूं...
बस यही सवाल है...
अश्क तेरी यादो में बहाऊँ...
या तेरी नजरो में बस जाऊं...
बस यही सवाल है...
भावार्थ...
Sunday, May 31, 2009
समंदर !!!
ये समंदर बहुत गहरा है...
इस धुरी से उस धुरी तक फैला हुआ...
जमी को काटता...
लोगो को बांटता...
ये समंदर बहुत गहरा है...
लहरे जो उठ उठ कर गिरती हैं...
इसकी मर्जी की जिद्दो-जहद है...
इसके गले पर सिमटा हुआ ये रेत...
कश-म-कश की निशानी है...
और इसके सर पे लगे ये पैने पत्थर...
इसने ख़ुद चुने हैं अपने लिए...
सपनो सी रंगीन मछलियाँ तैरती रहती हैं...
अफसानो से शंख गीले रेत में गुम हैं...
जहाँ तक नीला है उफनता नज़र आता है....
उसके बाद ये थमा थमा सा बहा जाता है ...
जितनी नदियाँ आ कर समा जाती हैं...
उतना इसका मिजाज बदला नज़र आता है...
कहीं काला कहीं लाल सागर है...
कभी खुशनुमा तो कभी दर्द में सिमटा ....
ये सोच का समंदर कितना अजीब है...
भावार्थ
Thursday, May 28, 2009
कौने !!!
तब गाँठ नहीं बनती...
एक कौने की तामीर होती है...
कमरे के गम लिए ये कौने....
अक्सर दिखाई नहीं देते...
जब दर्द आंसू की शक्ल लेना चाहता है ...
तो कौने उनको पनाह देते हैं ...
साजिशों के हमराज हैं ये कौने...
दीवारों की शक्ल बदल सकती है...
मगर इन कौनो की नहीं....
आज जब दीवारे गिरी तो ...
तो बस कौने रह गए...
टूटे रिश्ते से बनी गाँठ की तरह...
भावार्थ...
Tuesday, May 26, 2009
एक नज़्म !!!
सोचता हूँ ! एक नज़्म लिखूं...
मेरे महबूब के नाम...
एहसासों का पैगाम...
एक नज़्म लिखूं...
दिल के गलियारों से चुनी...
शहद से अल्फाजो से बुनी...
एक नज़्म लिखूं...
जुबान पे जो आ ना सकी...
जेहेन में जो समां न सकी...
वो बात लिए ..एक नज़्म लिखूं...
खयालो को मेरे आयना मिले...
खायिशो को मेरे मायना मिले...
ऐसी कुछ नज़्म लिखूं !!!
ऐ काश ! यहाँ मोहब्बत ही मोहब्बत होती...
तो दुनिया में कोई भी आह न बही होती...
कोरे कागज़ पे क्या लिखा जाए...
सोचता हूँ !एक नज़्म लिखूं...
क्यों नही हर्फ़ में दर्द को उकेरा जाए...
आंसू को पेन की निब से बिखेरा जाए....
ऐसी एक नज़्म लिखूं ...
जो मसली हुई सिसकियाँ लिए हो...
खौफ से जिसने अपने होठ सिये हों....
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
जो रहम की भीख मांगती हो...
भूख और गरीबी में पेट पालती हो...
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
जो निर्वस्त्र बाज़ार में खड़ी हो...
आबरू जिसकी आँखों में उडी हो...
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
मगर इस समंदर के ये दो किनारे क्यों...
दुनिया सिर्फ़ दर्द और खुशी के सहारे क्यों...
सोचता हूँ ! एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जिसके गम उसकी हसी की छाव में हों...
छाले जो भी हौं झूमते नाचते पाव में हों...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जो टूटे रिश्तो को जोड़ती नज़र आए...
काली रात जो हो तो उसकी सहर आए...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जो तरंग-ऐ-उम्मीद हारे दिलो में भर दे...
जो चिल्मिलती धूप में ताप कुछ कम कर दे...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जहाँ इकरार हर एक तकरार के बाद हो...
जहाँ इजहार हर एक इंतज़ार के बाद हो...
एक ऐसी नज़्म लिखूं....
तड़पते मेरे जेहेन को सुकून दे जाए ...
कोरे कागज़ को एक वजूद दे जाए...
भावार्थ
Sunday, May 24, 2009
अकर्मण्य !!!
पसीने में लथ-पथ लोग नज़र आते हैं...
रोटी को दौड़ते जिस्म नज़र आते हैं...
झूठ को तोलते बोल नज़र आते हैं...
गरीबों को निचोड़ते अमीर नज़र आते हैं...
अपंगो को झटकते सुडोल नज़र आते हैं...
कला को बेचते कलाकार नज़र आते हैं...
जिस्मो को परोसे अफ़कार नज़र आते हैं...
जमीर को छोड़ते इंसान नज़र आते हैं...
दरिंदगी बिखेरते हैवान नज़र आते हैं...
कतारों में लगे लाखो वजूद नज़र आते हैं...
कितने दर्द जेहेन में मौजूद नज़र आते हैं...
अश्क भर आते है मेरी आंखों में...
और मैं लौट जाता हूँ नींद मैं...
उन सपनो में जो खुदा ने मुझे बख्शे हैं...
भावार्थ...
क्या लिखा जाए !!
अहद-ऐ-नौ में क्या लिखा जाए,
अहवाल-ऐ-बशर ना लिखा जाए,
बेरूह कशाकाश में कैद जीस्त,
शिराज़ा-ऐ-बरहम कहाँ लिखा जाए,
कायनात वां खुदा तेरी तरफ ,
बस मेरी सम्त माँ लिखा जाए,
निकला मखलूक रूह का जनाज़ा,
आज तो फैंसला लिखा जाए,
तालुक नही कोई शादियानो से,
मुझको अहल-ऐ-वफ़ा लिखा जाए।
मानी:
अहद-ऐ-नौ =naya daur /waqt।
अहवाल-ऐ-बशर =aadmi ka haal।
कशाकाश =kheencha taani।जीस्त=life.
शिराज़ा-ऐ-बरहम bikhre huay pages।
सम्त =taraf,aur।
मखलूक =allah ki banayi hui।
तालुक =relation।
शादियानो =khushiyaan।
अहल-ऐ-वफ़ा vafa karne vaala.
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी ,प्रिये तुम आते वाब क्या होता?
मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?
Saturday, May 23, 2009
वादा !!!
दुनिया अपनी जन्नत से कहीं बढ़कर होगी...
अपने रिश्ते को लैला-मजनू की बुलंदी न मिले...
पर अपने रिश्ते की ईमारत उनसे बढ़कर होगी...
दिल से उठे वादे जो मेरे लबो ने बुने हैं ....
हर एक लफ्ज़ की तामीर उम्मीद से बढ़कर होगी....
कायनात जो लोगो को एक वहम सी लगती है...
लोगो की तस्सली हमारी कहानी पढ़ कर होगी...
तुम बस मुझे मोहब्बत के तिनके देती रहो...
दुनिया अपनी जन्नत से कहीं बढ़ कर होगी...
भावार्थ ...
गिलह है शौक़ को
गुहर में मह्व हुआ इज़्तिराब दर्या का
यह जान्ता हूं कि तू और पासुख़-ए मक्तूब
मगर सितम-ज़दह हूं ज़ौक़-ए ख़ामह-फ़र्सा का
हिना-ए पा-ए ख़िज़ां है बहार अगर है यिही
दवाम कुल्फ़त-ए ख़ातिर है `ऐश दुन्या का
ग़म-ए फ़िराक़ में तक्लीफ़-ए सैर-ए गुल न दो
मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्दहहा-ए बे-जा का
हनूज़ मह्रमी-ए हुस्न को तरस्ता हूं
करे है हर बुन-ए मू काम चश्म-ए बीना का
दिल उस को पह्ले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे
हमें दिमाग़ कहां हुस्न के तक़ाज़ा का
न कह कि गिर्यह ब मिक़्दार-ए हस्रत-ए दिल है
मिरी निगाह में है जम`अ-ओ-ख़र्च दर्या का
फ़लक को देख के कर्ता हूं उस को याद असद
जफ़ा में उस की है अन्दाज़ कार-फ़र्मा का
...मिर्जा गालिब
Friday, May 22, 2009
संदूक !!!
सजे सजे से ये संदूक जो है यहाँ...
इनपे नक्काशी की है दुनिया ने...
इनको ऐसी जगह रखा है लोगो ने...
की सबकी निगाह इनपे ही रूकती है...
रंग इसके इतने रिझाते हैं की बाजार गर्म है...
बोलियाँ लगाते लोग, जश्न मनाते लोग...
टूटे फूल उडाते लोग, रस्म निभाते लोग ...
इन्ही संदूकों को घेरे खड़े है...
इस संदूक पे मगर एक ताला पड़ा है...
लोग आ-आ कर उस ताले को निहारते हैं...
और उस संदूक की सीरत को आंकते हैं...
मगर ताले के आस पास उखडा हुआ लोहा...
सुबकते हुए कुछ कह रहा है...
की ये संदूक जीको लोग बाज़ार में देख रहे हैं....
ये संदूक जो सजा धजा सा रखा है...
असल में रिश्तो का है !!!
जो चमक तो रहा है मगर भीतर से रीता है...
भावार्थ...
Wednesday, May 20, 2009
तबके खेलों में
हम भी , बेटे ,कभी कालेज में पढ़ा करते थे ,
पहले टयूशन की दुकाने भी नहीं होती थी ,
फिर भी हैरत है की हम टॉप किया करते थे ,
खुश्बुये ,हमको भी बैचैन बहुत करती थी ,
फिर भी हम आँखों से फूलों को छुआ करते थे
, अब तो शागिर्दों से उस्ताद डरा करते हैं,
पहले उस्तादों से शागिर्द डरा करते थे,
जाने किन चीखों से ज़ख्मी है ,वे फ़िल्मी गाने ,
घर में मिल बैठ के हम जिनको सुना करते थे ,
पहले फ्रिज ,टी।वी.औ'कूलेर भी नहीं थे घर में ,
फिर भी आराम से हम लोग जिया करते थे ,
अबके खेलों में तोह हरकत भी नहीं होती है ,
तबके खेलों में पसीने भी बहा करते थे.
यूँ तो बहुत कुछ है
देने को
लेकिन जाने क्यूँ कुछ ख़ास
कुछ अपना सा देना है तुम्हे
मन में आता है
की पीछे से आके
तुम्हारी आँखें बंद कर दूं
और अपने हाथो की लकीरें
तुम्हारे माथे पे चढा दूं......
बाज़ार में सब दुकाने देख ली
लेकिन वो
फुर्सत में शाम की हवा का झोंका
गुलाबी
फूल पे गिरी नन्ही ओस की बूँद
वो पानी की मीठी आवाज़
नही मिली
कहाँ से लाऊं और दे दूँ तुम्हे
क्यूंकि मैं तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा ....
काश के तुम्हे तितलियों के पंख दे डालूं
या उनका कोई रंग ही दे दूँ
या के बाँध दूँ ऊँगली पे
अंगूठी बना के
बड़ा सा इन्द्रधनुष
तुम्हारेऑफिस बैग में
किसी पेड़ का घना साया रख दूँ
या के सूरज की रौशनी मुठियाँ भर भर के
जेबों में डाल दूँ
देने को बोहोत कुछ है
पर में देना चाहती हूँ
कुछ अपना सा
दिल करता है थाली में रख के
सारी दुनिया का प्यार
परोस दूँ
या ज़िन्दगी की मिठास चममच भर के
खिला दूँ
या चाय के प्याले
में बोहोत सी खुशनुमा
खबरें
और
रात में नहाई चाँदनी की ठंडक
तुम्हारी आंखों में रख दूं
या के वक्त के चने
दोस्ती के कोन में दे दूं
चबाते रहना .......
बस के इत्ता कुछ है देने को
मगर फिर भी
समझ आता नही
क्या दूं
क्यूंकि मैं देना चाहती हूँ
कुछ ख़ास
कुछ अपना सा ........
Monday, May 11, 2009
लत !!!
अपनों से चंद बात कहता हूँ...
उनको अपना होने का एहसास देता हूँ...
पर घडी शाम ढलते ही टिक-टिकाने लगती है ...
मुझे अगली सुबह की शक्ल दिखने लगती है...
में मजबूर हो कर उस जाल से निकलता हूँ...
सफ़ेद कुरते-पायजामा पहनता हूँ...
अपने पीले खादी ठेले को लिए छत पे निकलता हूँ...
तोहफे में मिला पारकर पेन और वो डायरी खुलते हैं...
और मेरे चश्मे के भीतर से जान्लती आँखें...
मेरे जेहें में बनते उफनते सेलाब को...
कभी मस्ती में घुले शहद से खाब को....
अल्फाजो के छल्ले पेन की निब से गिरने लगते हैं...
तन्हाई में शाम इसतरह जगमगाने लगती है...
में डूब जाता हों मस्ती में...
रफ़्तार बढ़ जाती है मेरे पारकर की धीमे से...
चश्मे को मेरे दायें हाथ की उंगलियाँ बार बार संभालती हैं...
पन्ना कब भर गया पता ही न चला...
घंटे कब बीत गए....और पता न चला....
यु लिख के न जाने क्या मिलता है मुझे...
पन्नो में उडेल के ख़ुद को क्या मिलता है मुझे...
पर मजबूर हूँ ख़ुद से शायद मैं भी...
लिखने की लत का शिकार हूँ में भी...
भावार्थ...
Sunday, May 10, 2009
मन्नत !!!
तो अब कुछ चमकने का हुनर भी दे दे...
लोग जब तेरे सजदे के लिए सर उठाते हैं...
तो मुझे बस बुझा बुझा सा पाते हैं...
तुझसे जो करिश्मे की उम्मीद करते हैं...
मुझमें तेरे बे-असर होने का सबब पाते हैं...
में शर्म से अब रातो को नहीं निकलता...
उफक के कौने में कहीं छुपा रहता हूँ...
तुझसे करोडो की उमीदें बंधी हैं...
में इसीलिए मद्धम सा सुलगता रहता हूँ...
तू शहंशाह है तू गरीब नवाज़ है सबका...
इबादतो में फेलाए हुए तेरे नूर की बूँद ही दे दे ...
में भी जगमगा उठून कुछ एक पल के लिए...
ऐसी तकदीर तू मुझ बे-चिराग को दे दे...
कहीं ऐसा न हो कोई तुझसे आस बाँध ले ...
मैं गिरू और कोई तेरा बंदा मन्नत मांग ले ...
भावार्थ...
मैं बाज़ार में !!!
जो अब कहीं बिखरा सा पड़ा है...
मोहब्बत का साए की उम्मीद थी...
जो रिश्तो में कहीं उलझी पड़ी है...
कुछ दोस्तों के कह-कहे की आस थी...
जो अब तन्हाई में बुझ सी गई है...
फनकार बनने की खायिश थी दिल में...
रोजी जुटाते जुटाते अब मिट गई है...
गम सुनने को जो एक हमदम मिला ...
अपनी दुनिया बनने में कहीं गुम है...
जोश जो एक दहलीज़ पे कभी उफन पड़ता था...
आज बर्फ बन कर कहीं कोने में छुपा बैठा है...
सपनो को बुनते बुनते मेरे धागे ऐसे उलझे...
खाब और मैं हौले हौले बोझिल से हो गए...
तभी आज मैं...
निस्तेज चेहरा लिए, रोजी का थैला लिए...
मेरा बिखरा हुआ सा वजूद हाथ फेलाए ...
झूठी दुनिया से झूठे सपनो की आस लगाये...
होठो पे झूठी खुशी की लड़ी सजाये...
बाज़ार मैं खडा है बिकने के लिए...
कोई तो आए जो रूहानी दुनिया बुनने वाले को...
सपनो को गजलो, नज़मो में बुनने वाले को...
आज भर के लिए ही सही मगर रोजगार तो दे...
जेहेन की न सही भुजाओ की कीमत-ऐ-बाज़ार तो दे...
भावार्थ...
Tuesday, May 5, 2009
शख्स !!!
ऐ.सी की हवा में दिन बिताते बिताते...
ये ऍफ़.एम् के वही गाने गाते गुनगुनाते ...
बड़ी गाड़ियों में युही मंजिले पाते पाते ...
टाई गले की नसों तक दबाते सजाते ...
लोगो के सामने झूठ मूठ मुसुकराते मुस्कुराते ...
फ़ोन पे अजनबियों से बतियाते बतियाते ...
पीजा बर्गेर से अपनी भूख को मिटाते...
आज भी जब उक्ता जाता हूँ यु जीते जीते...
तो...
में नंगे पैर निकल जाता हूँ सुबह सुबह...
किसी नुक्कड़ पे चाय की प्याले थामे...
खुली हवा के कश लिया करता हूँ...
जमीन पे बैठ मिटटी को महसूस करू ...
कुँए से ओख भर पानी पियूं ...
भूख जब उदार में हिलोरे लेती है
कभी मसली प्याज और एक रोटी ...
तो कभी एक रोटी और आधी अचार की मिर्च...
सुकून जन्नत का देती है
तब लगता है कितनी झूठ है सब...
स्वाद खाने में नहीं भूखे होने में है...
तो कभी युही कुछ गजलें गुनगुना लेता हूँ...
उनके आयने आज कितने बेमाने हैं...
मन मेंं युही सोच मुस्कुरा लेता हूँ...
जब सब बेमानी लगता है ...
शाम मन्दिर की सीढियों पे बैठ॥
कृष्ण कनाहिया का कीर्तन सुन लेता हूँ...
टहलते तल्हलते दुनिया की बदली सूरत पे...
हंस लेता हूँ और ऑंखें मूँद लेता हूँ...
सोचता हूँ....
हर चीज़ सुहानी है अगर सोच सही है...
हर इंसान अपना है अगर नीयत सही है...
मगर कहाँ हूँ में और यह दुनिया कहाँ है...
किस ज़माने का हूँ और ये कौन सा जहाँ है...
लेकिन में बेफिक्र हूँ...
जब भी में उक्ता जाता हूँ झूठ को ढोते ढोते...
में इसी तरह जिंदगी को दिन भर में जी लेता हूँ...
जिन्दा हूँ इसी एहसास को कभी कभी जी लेता हूँ...
भावार्थ...
लौट आया !!!
आख़िर ख़ुद को मय के प्याले में डुबो दिया ...
बारहां उसकी आँखें देखी, जलवे देखे हमने...
आख़िर कलम को सोच को स्याही में डुबो दिया..
फीकापन था उसकी अदाओ में शोखियों में...
हमने तन्हाई को दोस्तों की सादगी में डुबो दिया...
भावार्थ...
Monday, May 4, 2009
तुझसे !!!
तुझ से दिल के कौने में खुशी की धुप खिली है...
तुझ से सेहरा की परछाई सुनहरी सी लगे...
तुझसे सावन में ठंडी एक बयार चली है....
तुझसे फिजाओ में अंगडाई आती है...
तुझसे उफक के दामन में बदरी की घटा चली है...
तुझसे समंदर में मौज उफनती है लहर बनकर...
तुझसे पपीहे को प्यास की आस मिली है...
तुझसे सवर कर हिना में सुर्ख रंग आता है...
तुझसे अदाओ को मचलने की अदा मिली है...
तुझसे आयते बनी ताबिजो में बंधी हैं जो...
तुझसे नमाजो को इबादत की जजा मिली है...
तुझसे मेरी साँसों में गर्मी घुलती जाती है...
तुझसे मेरी जिंदगी को पाक रूह मिली है...
भावार्थ...
Sunday, May 3, 2009
कुछ शेर !!!
पातियाँ बो रहे हैं वही पेड़ उगाने के लिए...
शमा बुझ गई उनके बुझाने से आख़िर कर...
अब लौ ढूढ़ते हैं अँधेरा रात का मिटाने के लिए...
मैली गंगा की किनारों से जो लौट आए...
अब ओख बढाये फिरते हैं प्यास बुझाने के लिए...
छोड़ दी दुनिया शोर से बचने की खातिर...
बे-सबब है वो बच्चे की किलकारी पाने के लिए...
तुम लिखते रहो 'भावार्थ' कुछ पाने की न सोचो...
लुट चुके हैं वो जो निकले थे सल्तनत बनाने के लिए...
भावार्थ...
Saturday, May 2, 2009
रिश्ते !!!
मेरे कितने ही हैं अरमान जले...
कुतरी शख्शियत के लत्ते लिए ...
बुझा दिए मैंने परवाज़ के दिए...
छिल दिए सपने जो थे बुन रहे...
तोड़ दिए मूरत की किनोरे बन रहे...
अब बचा है बस गमो का पुलिंदा ...
मौत को ओढे एक शख्श जिन्दा...
रिस्तो में उलझा सा वजूद लिए ...
खामोश साँस का सिलसिला जिए...
पाक रिश्तो की नीयत है बिगड़ रही...
घुटन लहू, रगों, साँसों तक है बढ़ रही...
अब सुकून बेताब आगोश को है कहाँ...
रिश्ते को मेरी प्यास का अंदाज़ है कहाँ...
नापाक रिश्तो की पनाह में हूँ बढ़ रही ...
तड़प बढ़ रही है या फ़िर में हूँ बढ़ रही ...
भावार्थ...
कालिख !!!
जो अब तक है लगी हुई....
मेरे इरादों में है बसी हुई...
नसों में लहू सी दौड़ती...
मेरे हौंसले को मरोड़ती...
कालिख है ये !!!
लोग अपने भी कतराने लगे...
बुझे चिराग नज़र आने लगे...
आंधियां जेहेन में मचलने लगी...
धुप भी छाँव के साए से निकलने लगी...
कालिख है ये !!!
जो अब तक छुटाए नहीं छूटती...
दाग की लकीर अब नहीं टूटती...
मेरे दामन पे उँगलियाँ अब उठ चुकी है...
खुशियाँ जो थी सब रूठ चुकी हैं...
कालिख है ये !!!
भावार्थ...
Friday, April 24, 2009
Thursday, April 23, 2009
करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता है गुमान और
या_रब!, न वोः समझें हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और
अबरू से है क्या उस निगेह-ऐ-नाज़ को, पैवंद?
है तीर मोक़र्रार, मगर उसकी है कमान और
तुम शेहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जा_कर, दिल_ओ_जान और
हर_चाँद सुबुक_दस्त हुए बुत_शिकनी में
हम हैं तो अभी राह में हैं संग-ऐ-गिरां और
है खून-ऐ-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते जो कई दीदा-ऐ-खून या न निशाँ और
मरता हूँ उस आवाज़ पे हर_चाँद सर आर जाए
जल्लाद को लेकिन वोः कहे जाएँ की "हाँ और!"
लोगोंको है खुर्शीद-ऐ-जहाँ_ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ऐ-निहां और
हैं और_भी दुनिया में सुखन_वर बहोत अच्छे
कहते हैं की "ग़लिब" का है अंदाज़-ऐ-बयान
...मिर्जा गालिब
हाट !!!
कोई कब किससे टकरा जाए कुछ पता नहीं...
जहाँ पाव रखने की जगह न थी...
वहां लोग रफ़्तार में नज़र आ रहे थे...
धरती में सब्जियों के ढेर लगे थे...
और हर ढेर पे ढेर सारे लोग खड़े थे...
कोई हाथ बढ़ा रहा था तो कोई पैसे ही...
कोई सब्जी की टोकरी तो कोई ऐसे ही...
गोल गोल कतार लगी थी हर तरफ़....
एक बात कोई कहे तो पता ही नहीं चलता था...
हर बात को ऊँची आवाज़ में कई बार बोलो...
तब कहीं जा कर कुछ बात बनती...
गैस के लैंप जल जल को उजाला कर रहे थे...
दूकान दार पसीने में लथ-पथ तोलने में लगा था...
कोई कोई तो उसके इमां पे शक कर बैठते...
उससे फ़िर से तोलने की जिद कर बैठते...
खरीदने और बेचने का दौर जारी रहा...
आज फ़िर हाट लगी कुबेरपुर में...
भावार्थ...
Sunday, April 19, 2009
काश !!!
लबो से न सही आँखों से ही सही...
कोई बात जो उसने कभी कही होती...
साथ चलते रहने की जिद जो कभी...
उसके दिल में भी अगर रही होती...
मेरे चेहरे को पढने को कोशिश अगर...
उसने भीगी रातो को जो कभी की होती...
लकीरों में बुझते मेरे मुकद्दर की आह....
अपने हाथ में लेकर उसने कभी सही होती....
पलक तक आकर नींद रुक जाती थी....
उँगलियाँ मेरे सर पे उसकी कभी रही होती...
समंदर की आस थी मुझे उसके साए से...
मेरी प्यास उसने कभी महसूस की होती...
तो मैंने फ़िर यु जहर खाया न होता...
मौत को यु गले लगाया न होता...
तन्हाई से यु पीछा छुडाया न होता...
भावार्थ...
Saturday, April 18, 2009
खुदाई !!!
एक अरमा मिला और कई खायिशे छूट गई....
सपने बंद आँखों का हमको तोहफा भर ही थे...
दर्द से दूर थे और बस तभी ये नींद टूट गई...
तमन्नाओ को जेहेन में हम अपने पिरोते गए...
जुड़ने वाली थी कड़ी और आखरी गाँठ छूट गई...
जन्नत खुदा ने बख्शी तो तेरे लम्हों जितनी थी...
तू तो नाराज़ थी मगर अब तेरी याद भी रूठ गई...
भावार्थ...
Thursday, April 16, 2009
आज फ़िर कोई बात चले...
चौखट से उठ कर में अपनी जाऊं...
भरी दुपहरी को ठेंगा दिखाऊँ...
उनकी सुनूँ कुछ अपनी सुनाऊं...
आज फ़िर कोई बात चले...
चाय के प्याले फ़िर उठने लगें...
कह-कहे हवा में फ़िर घुलने लगे...
बंद दिलो के दरवाज़े भी खुलने लगे...
आज फ़िर कोई बात चले...
चिदी, पान, हुकुम,ईंट हो हाथ में...
बेगम,बाद्शाहम गुलाम हो साथ में...
दहला पकड़, रमी की बाजियां हो रात में...
आज फ़िर कोई बात चले...
भावार्थ...
Tuesday, April 14, 2009
नफरत !!!
Monday, April 13, 2009
फज़ल !!!
तब कहीं जाके कुछ सिक्के आए थे...
आंख होती तो शायद शक्ल दिख जाती...
सपने उसने जो अंधेरे में सजाये थे...
मुस्कुरा पड़ता है लोगो की बात सुन कर...
भिखारी के आगे उसने हाथ बढाये थे....
कोसता था खुदा को वो उसका बचपन था...
फज़ल है हाथ पाव उसने साजे बनाये थे...
रात उसकी सन्नाटे से और दिन शोर से है...
दो कान उसने ऐसे आँख जैसे बनाये थे...
रेल की पटरियां तय करता चला गया ...
उसके कदमो ने मंजिल के रास्ते पाये थे...
भावार्थ...
आरोप !!!
दिमाग पर इंसा के काबू नहीं रहता...
नसों में बस ये जूनून बहता है ...
इंसान फ़िर वो इंसान नहीं रहता...
पिघला हुआ कांच जब लबो को छूता है...
जिंदगी को होश-ओ-हवास नहीं रहता....
तुम पूछती हो कैसा हूँ...
मौत का सफर एक लम्हे का होता है...
आदमी जिंदगी भर डरता है उससे...
खौफनाक कुछ है तो ये तन्हाई है ...
जिन्दा हो कर भी मुर्दा सा है उससे...
कहाँ ले आई जिंदगी मुझे...
इतनी कसक है इसको मेरे वजूद से...
सूखे दरिया में डुबाने का ख़याल रखती है....
बिखर जाने का मेरे इसको कहाँ गम...
ख़ुद से जुदा करने का ख्याल रखती है....
होश में नहीं रहता में आज कल ...
बेहोश दुनिया नशे में कहती है...
खून में जब तलब बस जाती है न ...
भावार्थ...
Saturday, April 11, 2009
युगल !!!
एक दूजे को पास खींचे ...
जेहेन के बादलो में....
तैरते तैरते हम दोनों...
कई बार गुनगुनाये हैं....
मौज के हर्फ़,गम के लफ्ज़...
हथेली पे फूंक से उडाये हैं...
तर्ज़ की मद्धम आंच पर ...
ग़ज़ल के धुएँ उठाये हैं....
सोच की झीनी सी छत पे ...
ओस के सामियाने बिछाये हैं..
मैं और मेरे गीत अक्सर युही ....
तन्हाई में आँख मींचे...
एक दूजे को पास खींचे...
बहते रहते हैं...
भावर्थ
Monday, April 6, 2009
मुझको बचाओ माँ ...
जिंदगी की धुप मुझे भी दिखाओ माँ...
तेजधार वाली कैंची क्यों है बढ़ रही...
घुटन मेरी साँसों में क्यों है चढ़ रही ...
नन्ही परी को अपने आगोश में छुपाओ माँ ...
मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...
एक तेरे सिवा सबसे यहाँ अनजानी हूँ में ...
तू ही कहती थी मोहब्बत की निशानी हूँ में...
अपनेपन का साया मुझपे लाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...
क्यों है दुश्मन मेरे अभी से अजनबी...
रिश्तो के जाल में भी न फसी हूँ अभी...
इस कलियुग की परछाई हटाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ,मुझको बचाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ, मुझको बचाओ माँ...
जिंदगी की धुप मुझे भी दिखाओ माँ...
मुझको बचाओ माँ ...
भावार्थ...
Sunday, April 5, 2009
मुसाफिर !!!
अंधेरे को साँस भर पी पी जाना ...
काले शामियाने में जी जी जाना...
घटाओ में लिपटी हवा बैरी खिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को...
खटकती है कदमो की आहट भी दिल में...
सुलगती है बढ़ने की चाहत भी दिल में...
बिखरा पड़ा वजूद भी खुदा की रजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को ...
काटते हैं जुगनुओ के ये दंश बार बार...
चीरती है फूँस की गीली शीत बार बार...
मील के पत्थरों की दूरी बुरी फिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
भावार्थ...
Saturday, April 4, 2009
उठो !!!
जुल्म है बुलंद, हम हुए अपंग, आवाज़ अभी है खो रही...
बुझे हो तुम, गिरे हो तुम , तुम धड हो सर कटे हुए...
उखड़े हो तुम, उजडे हो तुम, इंसान हो तुम बस लुटे हुए...
सारे तंत्र हुए ध्वस्त, संसद हुआ है पस्त, नाट्य-तंत्र है बचा...
चूहा भी कुतर चुका,गीदड़ भी गुज़र चुका, कुक्कुर-मन्त्र है बचा...
होली है तो, तू रंग छोड़ ,तू अब क्रान्ति की राख मल...
गलियाँ छोड़, रंग रलियाँ छोड़ तू अब आवाम के साथ चल...
भावार्थ
Friday, April 3, 2009
बांसुरी !!!
अंधेरे की परछाई ओढे रात जागी कि तारे सारे बिछ गए...
सुर छुपे थे जो कहीं लकड़ी की नसों में वो सब उगल दिए...
उँगलियों ने फ़िर वही घाव सारे छु के आज छिल दिए ...
तड़प थी उम्र भर कि जो बांसुरी में साँस बन के भर गई ...
आँख रोई आंसू बिन और दिल कि आह रक्त नीला कर गई...
जिंदगी गर बेपनाह जो है तो बस मौत के आगोश में है...
जो जिन्दा है पर है मरा हुआ वही असल एक होश में है...
कृष्ण न तो तू रहा न रास रहे न ही द्वापर कि वो लीला रही...
सालो तक बांसुरी बजी और तन्हाई उसके वजूद से लिपटी रही...
भावार्थ...
Monday, March 30, 2009
भादों !!!
तो हौले से शाम के आगोश में आ गई...
सिली सिली सी हवा ...
मद्धम मद्धम सी सोंधी खुशबू ...
पीपल के पत्तो पे मोती सी बूँदें...
उसने कभी नहीं देखी थी...
धूल दूर दूर तक बोझिल थी...
बच्चो की टोली जो उससे डरती सी थी...
किलकारियां मारती हुई आ पहुँची...
देखते ही देखते बाँझ दुपहरी...
हरी भरी सी भादों की शाम बन गई...
भावार्थ...
Saturday, March 28, 2009
वाकया !!!
जो मद्धम हो चुकी थी वो हवा बदली...
तरसते पपीहे की चाह बदली...
निगोड़े भंवरे की निगाह बदली...
गुनगुनाने वाली की राह बदली...
रिश्तों के गुलज़ार में सुना है
एक और नया फूल खिला है ...
भावर्थ
Thursday, March 26, 2009
तुम यहीं हो मेरे पास !!!
साँसों की तपिश तरह ...
महकी हवा की तरह ...
चहकती सुबह की तरह...
सजती शाम की तरह...
ख्याल के साए में महफूज़ ...
तुम यहीं हो मेरे पास हो...
मेरे हर्फ़ जो हैं ये ....
दूरियों के गम से बुने हैं मैंने...
मोहब्बत की कशिश से चुने हैं मैंने ...
एहसासों का शामियाना जो ...
जो मेरी तेरी बातों से बना है...
आज भी तन्हाई की धुप से ...
कसक की हिलोरे से...
बचाता है मुझे हर पल हर लम्हे...
लम्हे भर को मुझे फ़िर लगा ....
तुम यहीं हो मेरे पास !!!
मेरे ख्यालो के साए में महफूज़...
भावार्थ...
Monday, March 23, 2009
दर्द मिन्नत_काश-ऐ-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
जमा'अ करते हो क्यों रकीबों का ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हम कहाँ किस्मत आजमाने जायें ?
तू ही जब खंजर आजमा न हुआ
कितने शीरीं हैं तेरे लैब ! की रकीब
गालियाँ खाके बे_मज़ा न हुआ
है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ !
क्या वोह नमरूद की खुदाई थी
बंदगी में तेरा भला न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक तो ये है के हक अदा न हुआ
ज़ख्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रावणः हुआ
रहज़नी है की दिल_सितानी है ?
लेके दिल, दिल_सीतां रावणः हुआ
कुच्छ तो पढिये की लोग कहते हैं
"आज 'ग़लिब' घज़ल्सरा न हुआ"
...मिर्जा गालिब
Wednesday, March 18, 2009
बातें !!!
अल्फाज़ ख़ुद ब ख़ुद बनने लगते हैं...
दर्द आँखों के किनोरो से , दिल के कौने से...
हर्फ़ लाता है और पिरो देता है बातो में...
कभी कभी खुशो चेहरे से जाहिर होती है...
तो कभी मुस्कान से तो कभी दिल में...
साड़ी खुशियाँ बायाँ होने को जब बेताब होती है...
तब चमकती आँखें, गालो की लाली...
लबो की थिरक चुन लाती है खुशी...
और भर देती है जुबा को मिसरी सी बातो से...
कभी कभी युही कुछ भी कहने को जी करता है...
वो बातें जो तुम शायद कभी नहीं कहते...
पहनावे की बातें, खाने की बातें...
किसी ने कुछ कहा, किसी को कुछ कहा...
कुछ ऐसा लगा, कुछ वैसा लगा...
दिन भर क्या किया , कैसे किया....
और क्या चल रहा है...ऐसी कितनी ही बातें...
जुबा पे आती है जो जेहेन में भी नहीं आती...
बातें अधूरी है जब तक उनको कोई सुने न...
ख़ुद से बातें करने वाले को पागल कहते हैं लोग...
आज तुम हो...तो में भी बातें करने लगा हूँ !!!
मेरी बातों की भी हमसफ़र हो तुम...
भावार्थ...
Sunday, March 15, 2009
एहसास !!!
अब तक कभी नहीं देखे मैंने ...
मद्धम से तैरते हुए आए ...
और फिजा बन कर छा गए ....
वो सुबह को छु कर आए थे...
उनमें वो रेशमी नमी थी...
रंग ऐसा की रंगोली जैसे नाच जा रही हो...
पाक इतना जैसे कोई आरती गा रही हो...
आसमा हैरान है इस नवेले बादल पे...
जिंदगी का मौसम बदलने वाला है शायद....
भावार्थ...
१५ मार्च २००९,
प्रेरणा : प्राची
Sunday, March 1, 2009
याद तेरी आए !!!
एक पल में क्या से क्या हुआ जादू सा क्या चला ...
तुझसे जुदा हुआ तो में ख़ुद से जुदा हुआ...
आए याद तेरी आए !! जाए जान भी न जाए !!
सूना सूना सा है मौसम बोझिल सी शाम है...
तनहा तनहा हर रास्ता तनहा मुकाम है...
गुलसुम सी लगती है आई है जो हवा...
चुपके चुपके छुप कर रोता है आंसमा...
बेताब धड़कन मेरी आँखों में मेरी धुंआ...
तुझसे जुदा हुआ में ख़ुद से जुदा हुआ...
आए याद तेरी आए !! जाए जान भी न जाए
किसने सोचा था की आएगा ऐसा एक दिन...
खाली खाली होंगे हर पल छिन तेरे बिन ...
बैचैनी है बेताबी है दिल है बुझा बुझा...
मारा मारा दीवाना सा फिरता यहाँ वहां...
साँसे मेरी रुकी रुकी खामोश है सदा ...
तुझसे जुदा हुआ तो आज ख़ुद से जुदा हुआ...
आए याद तेरी आए !!! जाए जान भी न जाए !!!
अमिताभ वर्मा...
Friday, February 27, 2009
हजारों ख्वाहिशें ऐसी
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
दरे क्यों मेरा कातिल? क्या रहेगा उस की गर्दन पर?
वोह खून, जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूँ दम-बा-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहोत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाए जालिम! तेरी कामत की दराजी का
अगर इस तरहे पर पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मगर लिखवाये कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाये
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझे से बाद आशामी
फिर आया वोह ज़माना, जो जहाँ में जाम-ऐ-जाम निकले
हुई जिन से तवक्का खस्तगी की दाद पाने की
वोह हम से भी ज्यादा खस्ता ऐ तेघ ऐ सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले
ज़रा कर जोर सीने पर की तीर-ऐ-पुरसितम निकलेजो
वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यान भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मैखाने का दरवाजा घलिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वोह जाता था के हम निकले
हजारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...
...मिर्जा गालिब
Monday, February 23, 2009
जरूरत !!!
आँखें फ़ुट पड़ती हैं नमी लाने को जले में…
तड़प अल्फाजो की लबो में जो दब सी जाती है…
दिल के गुबार भर भर के आते हैं रूंधे गले में …
बहते सपनो को मेरे कोई साहिल नही मिलता…
भवर बन बन के उमड़ते हैं रातो के तले में…
मकसद उलझा पड़े हैं जरूरत के कांटो में…
अब बुलंदी नहीं रही मेरे खाबो के वल-वले में…
टूट चुक्का है बस बिखरा नहीं है भावार्थ…
गुमनाम है वो इरादे जो पलते थे इस दिल-जले में…
...भावार्थ
जरूरत
धधकते दिलो की दूरियां जब जुबान तय न कर पाए …
आँखें फ़ुट पड़ती हैं नेम लेन को जले में…
तड़प अल्फाजो की लबो में जो दब सी जाती है…
दिल के गुबार भर भर के आते हैं रूंधे गले में …
बहते सपनो को मेरे कोई साहिल नही मिलता…
भवर बन बन के उमड़ते हैं रातो के तले में…
मकसद उलझा पड़े हैं जरूरत के कांटो में…
अब बुलंदी नहीं रही मेरे खाबो के वल-वले में…
टूट चुक्का है बस बिखरा नहीं है भावार्थ…
गुमनाम है वो इरादे जो पलते थे इस दिल-जले में…
...भावार्थ