हर दिन जब रोजी कमा कर लौटता हूँ...
अपनों से चंद बात कहता हूँ...
उनको अपना होने का एहसास देता हूँ...
पर घडी शाम ढलते ही टिक-टिकाने लगती है ...
मुझे अगली सुबह की शक्ल दिखने लगती है...
में मजबूर हो कर उस जाल से निकलता हूँ...
सफ़ेद कुरते-पायजामा पहनता हूँ...
अपने पीले खादी ठेले को लिए छत पे निकलता हूँ...
तोहफे में मिला पारकर पेन और वो डायरी खुलते हैं...
और मेरे चश्मे के भीतर से जान्लती आँखें...
मेरे जेहें में बनते उफनते सेलाब को...
कभी मस्ती में घुले शहद से खाब को....
अल्फाजो के छल्ले पेन की निब से गिरने लगते हैं...
तन्हाई में शाम इसतरह जगमगाने लगती है...
में डूब जाता हों मस्ती में...
रफ़्तार बढ़ जाती है मेरे पारकर की धीमे से...
चश्मे को मेरे दायें हाथ की उंगलियाँ बार बार संभालती हैं...
पन्ना कब भर गया पता ही न चला...
घंटे कब बीत गए....और पता न चला....
यु लिख के न जाने क्या मिलता है मुझे...
पन्नो में उडेल के ख़ुद को क्या मिलता है मुझे...
पर मजबूर हूँ ख़ुद से शायद मैं भी...
लिखने की लत का शिकार हूँ में भी...
भावार्थ...
अपनों से चंद बात कहता हूँ...
उनको अपना होने का एहसास देता हूँ...
पर घडी शाम ढलते ही टिक-टिकाने लगती है ...
मुझे अगली सुबह की शक्ल दिखने लगती है...
में मजबूर हो कर उस जाल से निकलता हूँ...
सफ़ेद कुरते-पायजामा पहनता हूँ...
अपने पीले खादी ठेले को लिए छत पे निकलता हूँ...
तोहफे में मिला पारकर पेन और वो डायरी खुलते हैं...
और मेरे चश्मे के भीतर से जान्लती आँखें...
मेरे जेहें में बनते उफनते सेलाब को...
कभी मस्ती में घुले शहद से खाब को....
अल्फाजो के छल्ले पेन की निब से गिरने लगते हैं...
तन्हाई में शाम इसतरह जगमगाने लगती है...
में डूब जाता हों मस्ती में...
रफ़्तार बढ़ जाती है मेरे पारकर की धीमे से...
चश्मे को मेरे दायें हाथ की उंगलियाँ बार बार संभालती हैं...
पन्ना कब भर गया पता ही न चला...
घंटे कब बीत गए....और पता न चला....
यु लिख के न जाने क्या मिलता है मुझे...
पन्नो में उडेल के ख़ुद को क्या मिलता है मुझे...
पर मजबूर हूँ ख़ुद से शायद मैं भी...
लिखने की लत का शिकार हूँ में भी...
भावार्थ...
1 comment:
wonderful one !!!!!!!!!!
zara gulzariyat hai ismein.....
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