मुकम्मल जहाँ ढूढ़ते ढूढ़ते...
ख़ुद से महरूम हो चुका हूँ...
आशियाँ बसाने निकला था....
हर एक तिनका खो चुका हूँ...
तलब थी मंजिले पाने की...
कब की ख़ाक हो चुकी है...
आग थी कर गुजरने की...
वो कब की राख हो चुकी है...
एक दिया था मोहब्बत का ...
बेवफाई की आंधी ने बुझा दिया...
उसकी यादो की लौ बची थी....
उसको मैंने तन्हाई में गुमा दिया...
कतरा कतरा जिंदगी अब राहो में....
और जेहेन मेरा तरस रहा है....
प्यास लबो पे आ कर मिट चुकी...
और ये बादल अब बरस रहा है...
भावार्थ...
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