दुनिया के बेढंगे रिश्तो के तले...
मेरे कितने ही हैं अरमान जले...
कुतरी शख्शियत के लत्ते लिए ...
बुझा दिए मैंने परवाज़ के दिए...
छिल दिए सपने जो थे बुन रहे...
तोड़ दिए मूरत की किनोरे बन रहे...
अब बचा है बस गमो का पुलिंदा ...
मौत को ओढे एक शख्श जिन्दा...
रिस्तो में उलझा सा वजूद लिए ...
खामोश साँस का सिलसिला जिए...
पाक रिश्तो की नीयत है बिगड़ रही...
घुटन लहू, रगों, साँसों तक है बढ़ रही...
अब सुकून बेताब आगोश को है कहाँ...
रिश्ते को मेरी प्यास का अंदाज़ है कहाँ...
नापाक रिश्तो की पनाह में हूँ बढ़ रही ...
तड़प बढ़ रही है या फ़िर में हूँ बढ़ रही ...
भावार्थ...
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