Saturday, May 2, 2009

कालिख !!!

कालिख है ये !!!
जो अब तक है लगी हुई....
मेरे इरादों में है बसी हुई...
नसों में लहू सी दौड़ती...
मेरे हौंसले को मरोड़ती...

कालिख है ये !!!
लोग अपने भी कतराने लगे...
बुझे चिराग नज़र आने लगे...
आंधियां जेहेन में मचलने लगी...
धुप भी छाँव के साए से निकलने लगी...

कालिख है ये !!!
जो अब तक छुटाए नहीं छूटती...
दाग की लकीर अब नहीं टूटती...
मेरे दामन पे उँगलियाँ अब उठ चुकी है...
खुशियाँ जो थी सब रूठ चुकी हैं...

कालिख है ये !!!

भावार्थ...

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