आज फ़िर कोई बात चले...
चौखट से उठ कर में अपनी जाऊं...
भरी दुपहरी को ठेंगा दिखाऊँ...
उनकी सुनूँ कुछ अपनी सुनाऊं...
आज फ़िर कोई बात चले...
चाय के प्याले फ़िर उठने लगें...
कह-कहे हवा में फ़िर घुलने लगे...
बंद दिलो के दरवाज़े भी खुलने लगे...
आज फ़िर कोई बात चले...
चिदी, पान, हुकुम,ईंट हो हाथ में...
बेगम,बाद्शाहम गुलाम हो साथ में...
दहला पकड़, रमी की बाजियां हो रात में...
आज फ़िर कोई बात चले...
भावार्थ...
2 comments:
वैसे तो मैं कविता-शायरी का पंखा नहीं, लेकिन पिछले दिनों जितनी कवितायें अनायास ही पढ़ी हैं, उसमें यह सबसे अच्छी लगी! धन्यवाद!
Thnx anil !!!
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