धधकते दिलो की दूरियां जब जुबान तय न कर पाए …
आँखें फ़ुट पड़ती हैं नमी लाने को जले में…
तड़प अल्फाजो की लबो में जो दब सी जाती है…
दिल के गुबार भर भर के आते हैं रूंधे गले में …
बहते सपनो को मेरे कोई साहिल नही मिलता…
भवर बन बन के उमड़ते हैं रातो के तले में…
मकसद उलझा पड़े हैं जरूरत के कांटो में…
अब बुलंदी नहीं रही मेरे खाबो के वल-वले में…
टूट चुक्का है बस बिखरा नहीं है भावार्थ…
गुमनाम है वो इरादे जो पलते थे इस दिल-जले में…
...भावार्थ
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