कोरे कागज पे क्या लिखा जाए...
सोचता हूँ ! एक नज़्म लिखूं...
मेरे महबूब के नाम...
एहसासों का पैगाम...
एक नज़्म लिखूं...
दिल के गलियारों से चुनी...
शहद से अल्फाजो से बुनी...
एक नज़्म लिखूं...
जुबान पे जो आ ना सकी...
जेहेन में जो समां न सकी...
वो बात लिए ..एक नज़्म लिखूं...
खयालो को मेरे आयना मिले...
खायिशो को मेरे मायना मिले...
ऐसी कुछ नज़्म लिखूं !!!
ऐ काश ! यहाँ मोहब्बत ही मोहब्बत होती...
तो दुनिया में कोई भी आह न बही होती...
कोरे कागज़ पे क्या लिखा जाए...
सोचता हूँ !एक नज़्म लिखूं...
क्यों नही हर्फ़ में दर्द को उकेरा जाए...
आंसू को पेन की निब से बिखेरा जाए....
ऐसी एक नज़्म लिखूं ...
जो मसली हुई सिसकियाँ लिए हो...
खौफ से जिसने अपने होठ सिये हों....
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
जो रहम की भीख मांगती हो...
भूख और गरीबी में पेट पालती हो...
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
जो निर्वस्त्र बाज़ार में खड़ी हो...
आबरू जिसकी आँखों में उडी हो...
ऐसी एक नज़्म लिखूं...
मगर इस समंदर के ये दो किनारे क्यों...
दुनिया सिर्फ़ दर्द और खुशी के सहारे क्यों...
सोचता हूँ ! एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जिसके गम उसकी हसी की छाव में हों...
छाले जो भी हौं झूमते नाचते पाव में हों...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जो टूटे रिश्तो को जोड़ती नज़र आए...
काली रात जो हो तो उसकी सहर आए...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जो तरंग-ऐ-उम्मीद हारे दिलो में भर दे...
जो चिल्मिलती धूप में ताप कुछ कम कर दे...
एक ऐसी नज़्म लिखूं...
जहाँ इकरार हर एक तकरार के बाद हो...
जहाँ इजहार हर एक इंतज़ार के बाद हो...
एक ऐसी नज़्म लिखूं....
तड़पते मेरे जेहेन को सुकून दे जाए ...
कोरे कागज़ को एक वजूद दे जाए...
भावार्थ
No comments:
Post a Comment