तुम दिन में आग फूकने लगे...
जमीं के होठ भी सूखने लगे...
मुरझा गए इन बगीचों के चेहरे...
समंदर भी बूँद को टूकने लगे...
प्यास अब साँसों को लग रही ...
खून के गुब्बारे भी फूटने लगे...
दिन से तो कब से नाराज़ थे वो...
बच्चे अब रातो से भी रूठने लगे...
अमुयें कि छाया भी धधक रही...
कच्चे आम भी साखो से टूटने लगे...
रास्ते है जल रहे मंजिले सुलग रही...
हौसलों के इरादे भी छूटने लगे...
तुम दिन में आग फूकने लगे...
जमीं के होठ भी सूखने लगे...
भावार्थ
२७ जून २००९
तापमान: ४८ डिग्री सेल्सिउस
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