आज हमारे इंसान होने का एहसास मर चुका है...
औरो के लिए जीने का दौर कबका गुजर चुका है...
भीड़ में तरसते रहते हैं लोग हमसफ़र के लिए...
तन्हाई में रोते हुए गला इनका भी भर चुका है...
घर, कार और बाज़ार में है इतना उलझा हुआ...
इक इक सिरा जिंदगी का धागे सा उजर चुका है...
मोबाइल, ऐ.सी,इंटरनेट बिना जिंदगी अधूरी है...
ख़ुद के इजात चीजों से पंख ख़ुद के कुतर चुका है...
अपनी B.H.K में सब जिन्दा हैं यु तो कहने को...
मगर ख़बर नहीं उनको कि पड़ोसी मर चुका है...
भावार्थ
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