हासिल करने का खाब था मेरा...
जो अब कहीं बिखरा सा पड़ा है...
मोहब्बत का साए की उम्मीद थी...
जो रिश्तो में कहीं उलझी पड़ी है...
कुछ दोस्तों के कह-कहे की आस थी...
जो अब तन्हाई में बुझ सी गई है...
फनकार बनने की खायिश थी दिल में...
रोजी जुटाते जुटाते अब मिट गई है...
गम सुनने को जो एक हमदम मिला ...
अपनी दुनिया बनने में कहीं गुम है...
जोश जो एक दहलीज़ पे कभी उफन पड़ता था...
आज बर्फ बन कर कहीं कोने में छुपा बैठा है...
सपनो को बुनते बुनते मेरे धागे ऐसे उलझे...
खाब और मैं हौले हौले बोझिल से हो गए...
तभी आज मैं...
निस्तेज चेहरा लिए, रोजी का थैला लिए...
मेरा बिखरा हुआ सा वजूद हाथ फेलाए ...
झूठी दुनिया से झूठे सपनो की आस लगाये...
होठो पे झूठी खुशी की लड़ी सजाये...
बाज़ार मैं खडा है बिकने के लिए...
कोई तो आए जो रूहानी दुनिया बुनने वाले को...
सपनो को गजलो, नज़मो में बुनने वाले को...
आज भर के लिए ही सही मगर रोजगार तो दे...
जेहेन की न सही भुजाओ की कीमत-ऐ-बाज़ार तो दे...
भावार्थ...
No comments:
Post a Comment