Friday, September 18, 2009

र०-ब-रू !!!


समय मेरा कांच सा बिखर चुका है ...
बिखरे रंग बिरंगे कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते है...
कभी संजीदगी को टटोलते...
तो कभी तन्हायी को उकेरते....
कभी छलकती प्यास को देखते...
तो कभी पलते मेरे खयालो को देखते...
मेरे बिखरे समय के कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू करते हैं...
यु तो होंसले की गठरी मैंने सीने से बाँध रखी है...
जो बर्फीली रात में धडकनों को गर्म रखती है...
और मेरे बचपन की रातो में संजोये सपनो की चाह...
मेरे इरादों को नए आयाम देने का अरमान रखती है...
मैं राह-ऐ-मंजिल पे गिर गिर कर संभल रहा हूँ ...
फ़िर भी उम्मीद की बैसाखी लिए नंगे पाँव चल रहा हूँ ...
कभी कभी सब थमजा जाता है जो बस दौड़ता रहता है...
कोई तो है जो मेरी राहो को आ कर तोड़ता रहता है...
में भी बिखर जाता हूँ समय के साथ...
फ़िर मेरे बिखरे समय के टुकड़े ...
मुझे मेरे अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...
और में ख़ुद को टटोलता , अध्-बुनी में ख़ुद से बोलता...
चला जा रहा हूँ उस राह पे जिसका नामो निशाँ नहीं है...
एक मूरत है उस मंजिल की वो भी लफ्ज़-ऐ-बयाँ नहीं है...
वो भी मगर बिखरी पड़ी है समय के टुकडो के इर्द-गिर्द...
वही बिखरे हुए कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...

...भावार्थ

1 comment:

Jolly said...

this is one of the best poems
there will be many who will say.it is about me....
keep it up!!!