आज भी जब उक्ता जाता हूँ झूठ ढोते ढोते...
ऐ.सी की हवा में दिन बिताते बिताते...
ये ऍफ़.एम् के वही गाने गाते गुनगुनाते ...
बड़ी गाड़ियों में युही मंजिले पाते पाते ...
टाई गले की नसों तक दबाते सजाते ...
लोगो के सामने झूठ मूठ मुसुकराते मुस्कुराते ...
फ़ोन पे अजनबियों से बतियाते बतियाते ...
पीजा बर्गेर से अपनी भूख को मिटाते...
आज भी जब उक्ता जाता हूँ यु जीते जीते...
तो...
में नंगे पैर निकल जाता हूँ सुबह सुबह...
किसी नुक्कड़ पे चाय की प्याले थामे...
खुली हवा के कश लिया करता हूँ...
जमीन पे बैठ मिटटी को महसूस करू ...
कुँए से ओख भर पानी पियूं ...
भूख जब उदार में हिलोरे लेती है
कभी मसली प्याज और एक रोटी ...
तो कभी एक रोटी और आधी अचार की मिर्च...
सुकून जन्नत का देती है
तब लगता है कितनी झूठ है सब...
स्वाद खाने में नहीं भूखे होने में है...
तो कभी युही कुछ गजलें गुनगुना लेता हूँ...
उनके आयने आज कितने बेमाने हैं...
मन मेंं युही सोच मुस्कुरा लेता हूँ...
जब सब बेमानी लगता है ...
शाम मन्दिर की सीढियों पे बैठ॥
कृष्ण कनाहिया का कीर्तन सुन लेता हूँ...
टहलते तल्हलते दुनिया की बदली सूरत पे...
हंस लेता हूँ और ऑंखें मूँद लेता हूँ...
सोचता हूँ....
हर चीज़ सुहानी है अगर सोच सही है...
हर इंसान अपना है अगर नीयत सही है...
मगर कहाँ हूँ में और यह दुनिया कहाँ है...
किस ज़माने का हूँ और ये कौन सा जहाँ है...
लेकिन में बेफिक्र हूँ...
जब भी में उक्ता जाता हूँ झूठ को ढोते ढोते...
में इसी तरह जिंदगी को दिन भर में जी लेता हूँ...
जिन्दा हूँ इसी एहसास को कभी कभी जी लेता हूँ...
भावार्थ...
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