गिलह है शौक़ को दिल में भी तन्गी-ए जा का
गुहर में मह्व हुआ इज़्तिराब दर्या का
यह जान्ता हूं कि तू और पासुख़-ए मक्तूब
मगर सितम-ज़दह हूं ज़ौक़-ए ख़ामह-फ़र्सा का
हिना-ए पा-ए ख़िज़ां है बहार अगर है यिही
दवाम कुल्फ़त-ए ख़ातिर है `ऐश दुन्या का
ग़म-ए फ़िराक़ में तक्लीफ़-ए सैर-ए गुल न दो
मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्दहहा-ए बे-जा का
हनूज़ मह्रमी-ए हुस्न को तरस्ता हूं
करे है हर बुन-ए मू काम चश्म-ए बीना का
दिल उस को पह्ले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे
हमें दिमाग़ कहां हुस्न के तक़ाज़ा का
न कह कि गिर्यह ब मिक़्दार-ए हस्रत-ए दिल है
मिरी निगाह में है जम`अ-ओ-ख़र्च दर्या का
फ़लक को देख के कर्ता हूं उस को याद असद
जफ़ा में उस की है अन्दाज़ कार-फ़र्मा का
...मिर्जा गालिब
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