Wednesday, June 10, 2009

अलाव...गुलज़ार

रात भर सर्द हवा चलती रही।
रात भर हमने अलाव तापा।
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ काटी।
तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते तोडे।
मैंने जेबों से निकाली सभी सुखी नज्मे।
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले।
अपने इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे।
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी तुमने।
पलकों पे नमी सूख गयी थी, सो गिरा दी।
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको।
काट के दाल दिया जलते अलावों मैं उसे।
रात भर फूंकों से हर लौ को जगाये रखा।
और दो जिस्मों के इंधन को जलाये रखा।
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हुमने।

गुलज़ार...

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