Wednesday, December 23, 2009

रात

रात भर मैंने सपने तराशे हैं...
अब जी चाहता है न ये आखें खुलें...

बीते कल की छेनियाँ जेहेन पे है चली...
सर्द रातो को उठा धुआं ठिठुरता ही रहा...

बोलती रही रात अंधेरे से अपनी कही...
रूठी बैठी रही चांदनी कौने में कहीं...

लड़खड़ाते बादल अलाव पर आ कर रुके...
आंच पर जमे रहे रात के पुर्जे सभी...

...भावार्थ

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