अपनी दुनिया पे सदियों से छायी हुई संगदिल रात है।
यह न समझो की ये आज की बात है।
जब से दुनिया बनी जब से धरती बसी।
हम युही ज़िन्दगी को तरसते रहे।
मौत की आंधियां घिर के छाती रहीं।
आग और खून के बादल बरसते रहे।
तुम भी मजबूर हो हम भी मजबूर हैं।
क्या करें यह बुजुर्गो की सौगात है।
हम अंधेरे की गुफाओं से निकले मगर।
रौशनी अपनी सीनों से फूटती नहीं।
हमने जंगल सहरो में बदले मगर।
जंगल की तहजीब हमसे छूटती नहीं।
अपनी बदनाम इंसानियत की कसम।
अपनी हैवानिउयत आज तक एक साथ है।
हमने सुकरात को जेहर की भेट दी।
और ईसा को सूली का तोहफा दिया।
हमने गाँधी के सीने को चलनी किया।
केनेडी को जावा खून से नहला दिया।
साहिर लुधियानवी...
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