यही सोच में फ़िर चर्च गया...
की आज तुम शायद आओगी...
बिल्कुल पहली मुलाकात के तरह...
मुझे लगा वो वाकया होगा कि...
तुम उस रोज भी देर से आओगी...
घुसते ही आस्तां पे लड़खडाओगी ...
कुछ पल को तुम्हें होश न रहेगा...
फ़िर तुम मेरे आगोश में गिर जाओगी...
पर आज कल दोहराया नहीं...
मेरे बेइन्तेआह इंतज़ार का क्या ...
मिला मुझे कोई सरमाया नहीं...
यही सोच में उस रास्ते पे गया...
कि शायद आज तुम आओगी...
समय अपनी धुन में गुम था ...
और मैं तेरी याद मैं बेसुध था...
तेरी एहसास को ज़र्रे में संजोये...
रास्ता आज भी मुझे रुलाता है...
में तेरी यादो के साथ चल निकला...
कि जेहेन के रास्ते ही सही ...
शायद तू आए और फ़िर मुस्कुराए...
पर रास्ते न तुझसे पहले मजिल पायी...
कुछ एक आंसू गिरे पर तू नहीं आई...
यही सोच एक कब्र पे जा बैठा...
कि शायद आज तुम आओगी...
लोग कहते हैं कि तुम यहीं हो...
न जाने कितनी सालों से यहीं हो ...
ख़ुद के इंतज़ार को इब्तिदा दी मैंने...
जिंदगी को तेरी इन्तेआह दी मैंने...
तनहा अँधेरा शाम को ढलने लगा...
मेरा हर खाब जैसे बिखरने लगा...
फ़िर तुम हवा सी बन उभरी...
आगोश में लेने को जी चाह...
पर तुम आज फ़िर नहीं आई...
यही सोच में तेरी तस्वीर ले बैठा हूं...
शायद खुदा का कोई मोजजा हो...
और तुम इस कैद से बहर आओ...
और मेरी बाहों में गुम हो जाओ...
भावार्थ...
2 comments:
excellent !!while reading it felt evrything is happening in front of me ...it was so real in words
a live telecast is going on!!
जिन्दगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम...वो फिर नहीं आते..वो फिर नहीं आते. हृदय को छू लेने वाली बहुत ही सुन्दर रचना है.शुकिरया
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