Monday, December 22, 2014

पहले तो न थी

मोहब्बत हवाओं में इतनी पहले तो न थी
मदहोशी फ़िज़ाओं में इतनी पहले तो न थी
तुम्हारे बिन कितनी अधूरी थी  मैं अब पता चला
अहमियत किसी शख्श की  इतनी पहले तो न थी

भावार्थ




Wednesday, December 17, 2014

दो साल की जीनत

दो साल की जीनत
सुबह स्कूल जाने उठती न थी
अम्मी ने जिद कर उसे
गोद में भर के उठा ही लिया
नहलाया और सजाया
नज़र से बचने को  टीका भी लगाया
पानी की बोतल गले में
किताबों का बैग पीठ पे
सर पे स्कार्फ उढ़ाकर
भेज दिया जीनत को स्कूल
अब्बू मुझे गुड़िया लाना शाम को
इसी जिद के आसरे वो दहलीज़ से गयी
हाथ हिला कर उसने "खुदा हाफ़िज़" कहा था

दो साल की जीनत
तो कुछ बोलती नहीं है
अब्बू की गोद में
इतनी खामोश वो कभी न रही थी
मेरी तितली जीनत
न उसकी बोतल थी
न वो बैग और न वो लाल स्कार्फ
ये सो रही है क्या मैंने पुछा
आंसू आँखों के गले तक भर चुके थे
अब्बू बोले ये अब न उठेगी
हमारी जीनत अब कभी न उठेगी 
अब कौन अब्बू से जिद करेगा 
गुड़िया तो ले आये अब्बू 
मगर खेलने को 'गुड़िया' नहीं रही
मेरी दो साल की जीनत नहीं रही
खुदा भी "हाफ़िज़" न रख पाया "परी" को
दहशत और खौफ का शिकार बन गयी
दो साल की जीनत

भावार्थ

१६/१२/२०१४
पेशावर स्कूल के बच्चो को समर्पित 

Sunday, December 7, 2014

खुद के आने बाने में मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया
जाने अनजाने में ही मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया

लहू का जूनून तो नसों में पुरजोर था
जेहेन के बहकावे में मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया

ठहर जाता था में उसके आगाह पे
खुद की सुनी एकबार तो मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया

मुझे मालूम है दुनिया तो बस एकखाब है
जो माना इसे सच मैंने तो मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया

हाथ उसका हाथ में  ले चलता रहा
छोड़ा जो वो साथ तो मैं फंस गया

खुद के आने बाने में मैं फंस गया
जाने अनजाने में ही मैं फंस गया

भावार्थ

Monday, December 1, 2014

जिंदगी कैसे भला तुझे बुलाएं हम

जिंदगी कैसे भला तुझे  बुलाएं हम
तू जो आये तो जरा मुस्कुराये हम

कल आज और कल का जो चरखा है
कैसे इसमें से तुझे बुन के लाएं हम

जिंदगी कैसे भला तुझे बुलाएं हम

बस लहू  का बहना भी कोई जीना है
इश्क़ को सांस अपनी जो नबना पाएं हम

जिंदगी कैसे भला तुझे बुलाएं हम

जो मोहब्बत है सफर तो वफ़ा हमदम है
बेवफाई से बता मंजिल कैसे पाये हम

जिंदगी कैसे भला तुझे बुलाएं हम

तेरा अक्स शायद मुझमें कहीं महफूज है
तेरी खातिर आईने से  नज़र आएं हम

जिंदगी कैसे भला तुझे बुलाएं हम

जिंदगी कैसे भला तुझे  बुलाएं हम
तू जो आये तो जरा मुस्कुराये हम

~  भावार्थ ~ 









Sunday, November 16, 2014

देख समंदर लगता है मुझे



देख समंदर लगता है मुझे 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह 

कभी गुम सुम कभी बेबाक 
पल पल अंदाज़ बदलता है 
कभी दर्द से हो चीख रहा  
दरिया यूँ आवाज़ बदलता है 
चेहरा हूँ इस दरिया का 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह 

कभी कनक तो कभी चांदी 
रंग ओढ़ लू मैं उस बादल का 
कभी रात की मदहोशी लिए 
रंग ओढूँ हवा के आँचल का  
हर रंग लिए बेरंग है जो 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह  

देख समंदर लगता है मुझे 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह 

इश्क़ नहीं हमदम से मुझे 
रिश्ता तो फिर भी निभाना है 
जाना है रोज उसी साहिल पे 
जिस पर जाकर मिट जाना है
जिसमें बने और उसी में मिटे 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह 

देख समंदर लगता है मुझे 
मैं तो हूँ लहरों  की तरह 

भावार्थ 
१६/ ११/ २०१४ 
डरबन, साऊथ अफ्रीका 

Friday, November 14, 2014

क्या रंग है तेरे जनाजे का

क्या रंग है तेरे जनाजे का
तू देख सही तो जरा उठ कर

जो धरती कभी लहराती थी
वो आज बनी फिरती बंजर

प्यालों से शामें सजती थी जहाँ
अब रात बिछी कालिख बन कर

हर कौने में बसती थी हंसी जहाँ
अब बहता है दर्द हवा बन कर

जो जो थे तुझे दिल से प्यारे
भूल गए सब  एक एक कर

तू भी जो कल तक एक हस्ती थी
अब रह गयी एक लम्हा बनकर

क्या रंग है तेरे जनाजे का
तू देख सही तो जरा उठ कर

भावार्थ 
१४/११/२०१४ 












Thursday, November 13, 2014

उसकी जुबाँ ने कहा जाइए

उसकी जुबाँ  ने कहा जाइए
पर निगाह ने कहा पास आईये 
नहीं गवारा मैं रहूँ इर्द गिर्द
कहा बाँहों में आकरपिघल जाइए


ख़ामोशी-ए-तकालूम क्या खूब थी
ज़माने के लिए होठ तो हिलाइए
मोहब्बत नहीं है दिल में मेरे लिए
कोई देखे जो गर तो ज़रा मुस्कुराइए

वक़्त की तरह  जिंदगी बैचैन है
कुछ  एक पल के लिए ठहर जाइए
अब तेरी कशिश-ए-इश्क़ ही  छाँव है
दर्द  की धुप से हमको बचाइये

भावार्थ






आखिर ये दौलत क्या है

आखिर ये दौलत  क्या है
खनकते सिक्के या फिर कागज़
कनक या जिस्म की खुमारी
ए  दौलत  कमाने वाले

बेपरवाह नींद का भाव क्या है
दोस्तों के संग वो मस्ती
की बोली है कितने की  बता दे तू
ए  दौलत  कमाने वाले

सूत भर माँ का आँचल
या फिर कुछ इंच पिता का कन्धा
कहाँ मिलता है बता दे तू 
ए  दौलत  कमाने वाले

समनदर लाये कोई या फिर
खुला आसमान बिछाये कोई
कशिश मोहब्बत की कहाँ  मिलती है
ए  दौलत  कमाने वाले


कहाँ मिलता है सच का हौंसला
कितने में मिलेगा जूनून
किस तरह  मिलता है सुकून
ए  दौलत  कमाने वाले

मोल क्या है अपनेपन का
तू अगर है दौलत वाला
जरा मुट्ठी भर बचपन तो ला
ए  दौलत  कमाने वाले

दौलत इर्द गिर्द है तेरे हवा की तरह
बस समझ ले असल "दौलत"  क्या है
ए  दौलत  कमाने वाले

भावार्थ



Friday, October 17, 2014

इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

शिवालय है खाली मदिरालय भरे हैं 
इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

नशे में नचनियों पे जो हैं पैसे उड़ाते
बेबस भिखारी से वो हैं नज़रें बचाते

माया के जंजाल में ये आ पड़े हैं
इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

माँ बाप के जो न बन सके आस हैं
अजनबी दोस्तों के वो बने ख़ास हैं

रिश्तो को बस बोझ  माने पड़े हैं
इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

कथनी से करनी तक यहाँ सब झूठ है
आंसू से लहू तक की यहाँ सब लूट है

मत खोल लब यहाँ सब गद्दार भरे हैं
इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

शिवालय है खाली मदिरालय भरे हैं 
इस कलिजुग में कैसे इंसान भरे हैं

भावार्थ 





Saturday, September 13, 2014

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

न तन में खून फ़राहमन अश्क़ आँखों में
नमाज-ए-शौक तो वाजिब है बे वजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मयकदे वालो
नहीं जो वादा-ओ- सागर तो हाओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक-ए- दिल
किसी के वादा-ए -फ़र्दा की गुफ्तगू की सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

दयार-इ-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो फैज़ जिक्र-इ-वतन अपने रू-ब -रू ही  सही

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

फैज़ अहमद फैज़ 

Saturday, August 30, 2014

मेरे करार में नसीब बेकरारी है

इस मकान में घर की तलाश जारी है
मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है 

इंसान का चेहरा और दिल संग सा लिए  
मेरे हमनवाज़ों की क्या अदाकारी है

मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है

रिश्ते तोड़ के जीत जाना  तो आसान था  
बचाने को रिश्ते हमने दिलकी बाज़ी हारी है

मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है

जिस्म का मिलना भी कोई मिलना है
रूह से रूह की जो अगर पर्दागारी  है

मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है

रहकर जिन्दा  न हमें मिल सका सुकू
मौत को अब मयस्सर जिंदगी हमारी है

मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है

इस मकान में घर की तलाश जारी है


मेरे करार में  नसीब  बेकरारी है 

भावार्थ











Wednesday, August 20, 2014

मंजिलें क्या है रास्ता क्या है

मंजिलें क्या है रास्ता क्या है
हौंसला हो तो फासला क्या है

वो सजा दे कर दूर जा बैठा
इससे  पूछो मेरी सजा क्या है

जब भी चाहेगा छीन लेगा वो
सब उसीका है आपका क्या है

तुम हमारे करीब बैठे हो
अब दुआ कैसी और दवा क्या है

चांदनी आज किसलिए कम है
चाँद की आँख में चुभा क्या है

मंजिलें क्या है रास्ता क्या है
हौंसला हो तो फासला क्या है

आलोक श्रीवास्तव 

Saturday, August 16, 2014

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गयी

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गयी 
दोनों को एक नज़र में रज़ामंद कर गयी 
शक हो गया है सीना खुशा लज़्ज़त-ए- फरग 
तकलीफ-ए-पर्दादारी -ए- जख्म-ए-जिगर गयी  
वो वादा-ए- शबनम की सरमस्तियां कहाँ 
उठिए बस अब के लज़्ज़त-ए खाब-ए-शहर गयी 
उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कु-ए-यार में 
बारे आब आई हवा हवस-ए-बल ओ पर गयी 
देखो तो दिल फरेबी-ए-अंदाज़-ए- नक्श-ए- पा 
मौज-ए-खैराम-ए- यार भी क्या गुल कुतर गयी 

मिर्ज़ा ग़ालिब 

यहाँ की मिटटी में दफ़न ग़ालिब है

क्यूँ ओढ़ती  है दर्द ग़ज़ल मेरी
तुम्हार पूछना भी वाजिब है
क्या करूँ मेरा मुल्क है कुछ ऐसा 
यहाँ की मिटटी में दफ़न ग़ालिब है

भावार्थ






मौत मेरी उजाला हो

जींद चाहे अँधेरा हो
मौत मेरी उजाला हो

ठुकरा दे मुझे यादाश्त
जेहेन ने बस संभाला हो


बहरूपिया है ये वक़्त
क्या इसपर एतबार आये
खुली रहे मेरी आँखें
जो नींद आये तो एकबार आये

कैसे करू गुरूर-ए-वजूद
जिसे उसने माटी में ढाला हो



जींद चाहे अँधेरा हो
मौत मेरी उजाला हो

ठुकरा दे मुझे यादाश्त
जेहेन ने बस संभाला हो


काठी को खा जाएगा 
एक दिन मौत का दीमक 
जगमगाता सा तू जुगनू 
बुझ जाएगा बन के दीपक 

बन जायेगा वो ही रकीब 
जिसे दोस्त सा तूने पाला हो 


जींद चाहे अँधेरा हो
मौत मेरी उजाला हो 

ठुकरा दे मुझे यादाश्त
जेहेन ने बस संभाला हो 


भावार्थ 








Friday, August 15, 2014

वही इश्क़

वही शाम
वही जाम
और वही तन्हाई
जैसे मिल बैठें हों तीन यार
गम-ए- इश्क़ भुलाने को


वही इश्क़
वही अश्क़
वही बेवफाई
कुछ भी तो नया नहीं
दास्ताँ-ए-इश्क़ सुनाने को

वही साज
वही आवाज
वही बेहद रुस्वाई
चलो जज्बात होठों तक लाएं
बुलाया है दर्द गुनगुनाने को


भावार्थ

















Tuesday, July 15, 2014

हस्ती "गाज़ा" की

हर रोज सुबह मौत जागती है यहाँ …
हर रात हज़ारों जिंदगी सो जाती है
इस कदर दर्द में डूबी है हस्ती "गाज़ा" की
जीने से पहले है यहाँ मौत हो जाती है

भावार्थ





Saturday, July 12, 2014

चलो आज आसमान की गहराई देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें
किसी फ़कीर की हद-ए-शहंशायी देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें

मिटटी इस जहाँ में  है रूह से रोशन
रूह जिससे रोशन वो  नूर-ए-इलाही देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें

जो वक़्त को कमजोर समझते हैं वो
इतिहास के सीने पे वक़्त की तबाही देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें

तड़प बरक़रार है सब कुछ पाने के बाद
क्यूँ न अब माँ का आँचल करिश्माई देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें

हर तरफ है जहर मज़हब के साँपों का
बचने को अब कौन सी नज़र मसीहाई देखें

चलो आज आसमान  की गहराई देखें
किसी फ़कीर की हद-ए-शहंशायी देखें

~ भावार्थ ~

गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनयें !!!


Sunday, June 22, 2014

बेवफाई भी उसी से और कशिश भी उसी से है

जहाँ में रौशनी जिससे  तपिश भी उसी से है
बे-इन्तहा ख़ुशी जिससे खलिश भी उसी से है
अजीब सी है मोहब्बत की दास्ताँ सदियों से
बेवफाई भी उसी से और कशिश भी उसी से है

भावार्थ



Saturday, June 21, 2014

कुछ यूँ ही

हम  झुलस चुके हैं इतना कि आह नहीं है
इस दरिआ से उबरने की अब  राह नहीं है
होंसले कांच से बिखर चुके है इसकदर
कुछ कदम पर है मंजिल मगर चाह नहीं है


जहर जो हलक तक है उसके असर से बच
इस टोटके, काले धागे में बंधी नज़र से बच
तू जिस राह पे निकला है वो सच की है
नामुरादों के इरादों और झूठ के कहर से बच

भावार्थ












Sunday, June 15, 2014

हर जीवन का आधार पिता है !!!

हर जीवन का आधार पिता है
शक्ति सा निराकार पिता है
माँ का तो संसार है बच्चा
पर हर बच्चे का संसार पिता है

बचपन की नांदनी मांफ करे
लड़कपन के  दोष छांटें वो
बढ़ती उम्र के बढ़ते दर्द
इक सच्चे दोस्त की तरह बांटे वो

कुछ इस तरह का फनकार पिता है
हर   जीवन   का  आधार   पिता है
शक्ति सा   निराकार   पिता   है

बच्चा माटी तो बनकर कुम्हार
अपने अंश को साँचे में ढाले वो
धुप चढ़े तो  बनकर वृक्ष
हमको निर्मल छाया में  पाले वो

कुछ इस तरह का चमत्कार पिता है
हर जीवन   का आधार   पिता है
शक्ति   सा   निराकार   पिता है

हर रोज तुम्हारे हाल जो पोछे
पर  अपना दर्द न बताये वो
हमारे अधिकार का बोझ वो ढोता
पर अपना अधिकार न जताये वो

कुछ इस हद तक खुद्दार पिता है
हर   जीवन का   आधार पिता है
शक्ति   सा   निराकार   पिता है

भावार्थ 

Happy Father's Day !!!




Saturday, May 31, 2014

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ
ज्यादती खुद मैं अपने साथ करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

भीड़ से लेकर पहड़ो की तन्हाई तक
सुकूँ की खायिश मैं दिन रात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

लत गर हद में रहे फिर भी बेहतर है
रोज हद के पार मैं अपने हालात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

मेरा हमदम भी बस एक बात पे है खफा
मैं बावरा  भी रोज  वही बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

जो था वो सब लत में मैंने बेच दिया
अब नीलम मैं अपने जज्बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

जुस्तजू जिंदगी की भला मैं कसी करूँ
जब भी करता हूँ मैं मरने की बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

भावार्थ

ए खुदा तू फ़कीर बना मैनु

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु
या खुद में ही करदे फना मैनु

रंगीन सी दुनिया में अब रंग नहीं
मरासिम भी मेरे अब संग नहीं
बाकी भी फतह को कोई जंग नहीं

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु

इश्क़ नसीब हुआ हलल बनकर
सुकून नसीब हुआ खलल बनकर
दर्द नसीब हुआ मुझे वसल बनकर

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु

कुनबा भी मुझे अब भीर सा लागे
जीना शहर का मुझको  कीर सा लागे
मुस्कुराना भी चाहूँ तो पीर सा लागे

ए खुदा तू फ़कीर बना मैनु

भावार्थ 

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

मैनु तेरा शबाब ले बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा

किन्नी पीती ते किन्नी बाकी है
मैनु ऐहो हिसाब लै बैठा

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

मैनु जाद्वि तुसीहो याद आये
दिन दिहाड़े शराब लै बैठा

चंगा होन्दा  सवाल न करदा
मैनु तेरा जवाब ले बैठा

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

शिव कुमार "बटालवी"


शबाब : Peak of Youth

Thursday, May 29, 2014

किताबें

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पे
बड़ी बैचैन रहती हैं किताबें
अब उन्हें नींद में चलने की आदत हो गयी है
कोई सफा पलटता हूँ तो सिसकी सुनाई देती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के वो तुण्ड लगते हैं वो अलफ़ाज़
जिनपे अब कोई मायने नहीं उगते
जबान पे आता था जो जायका सफा पलटने का
अब एक ऊँगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है

गुलज़ार






Wednesday, May 28, 2014

क्या हूँ मैं ....माँ के अक्स के सिवा …

क्या हूँ मैं
उसी के सजदों का सबब
उसी  की दुआओं का असर
उसी  का एक सपना साकार हूँ मैं

उसी की आँखों का तारा
उसी के कलेजे का टुकड़ा
उसी की सीख का सरोकार हूँ में.…

उसी के मन का कोना
उसी के तन का हिस्सा
उसी की जिंदगी उसका संसार हूँ में

उसी की मुस्कराहट
उसी से मिलता जुलता सा
उसी की  परछाई का आकार हूँ मैं

क्या हूँ मैं
माँ के अक्स के सिवा …

भावार्थ

















पीतल को कौन सुनार खरीदेगा

भीड़ से नहीं संग सी तन्हाई से डरा हूँ
जब भी मरा हूँ तेरी जुदाई से मरा हूँ

जो हद है समंदर की किनारों के बीच
उस हद तक मैं तेरी  रुस्वाई से भरा हूँ

..........

पंख तोड़ के खुद के मैना ने ख़ुदकुशी की
बोलने का करतब दिखाने की खातिर
आज फिर एक तोता पिंजरे में कैद हुआ.....

……

मोहब्बत हो तो जनाजे और कब्र जैसी
दुल्हन सी सजा के लाती है दुनिया इसे
और छोड़ जाती है उस महबूब के आगोश में

.......

गरीब हो क्यों ईमान लिए फिरते हो
तोल भी दो तुम अपने जमीर को
पीतल को कौन सुनार खरीदेगा
बेच तो जाकर इसे किसी अमीर को

……
न रंग, न किताब, न किसी रुत में था
न काबा में समाया न किसी बुत में था
हिरन सी बैचैन रही मेरी शख्शियत
खुदा जो था जैसा था मुझी खुद  में था

-------

भावार्थ 





Thursday, May 22, 2014

जय माता दी !!!

रेशम के धागे सी जुडी आस है
मुझे मालूम है माँ सदा मेरे पास है
करता हूँ  हर सांस उसके सजदे
बुलावा आ गया जो बहुत ख़ास है

जय माता दी !!!

भावार्थ


Saturday, May 10, 2014

अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था 
भीड़ों में भी मैं खो न सका 
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
तना सस्ता मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग
जीवन भर कोई धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला
सदा प्रस्तावों को मैं ढो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर
मैं सुखशय्या पर भी सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका 
~ गोपाल सिंह नेपाली ~ 

कुछ ऐसा खेल रचो साथी


~ गोपाल सिंह नेपाली ~ 

Sunday, April 13, 2014

होश की चारदीवारी !!!

होश की चारदीवारी !!!

दुनिया के खेत के बीचोंबीच
जहाँ मेरे देश की सरहद की पगडण्डी है
उसी देश में मेरे होश की चारदीवारी है
उसमें मेरे नाम का बुजुर्ग दरवाज़ा है
सिर्फ एक लकड़ी का दरवाज़ा
उसपे मेरे मजहब की साँकर है
उसे खोल कर जरा भीतर झाँकोगे
तो उसमें मेरी सोच  का कच्चा आँगन है
बीचों बीच जिसमें श्रद्धा की तुलसी लगी है
वहीँ कौन में कलम टूटे लोटे  की तरह पड़ी है
सोच की बाल्टी जो जेहेन के कुँए पे लटकी है
जब भी डुबकी लगाती है तो निकाल लाती है
अधबुने फीके से पानी से कुछ ख्याल
दुसरे कोने में हर्फ़ का गुड भी है
जब भी मन करता है तो लोटा उठाता हूँ
बाल्टी से पानी और कौने से  गुड मिला कर
बना लेता हूँ कभी शायरी तो कभी ग़ज़ल का शरबत
गम से नमकीन जिंदगी में मिठास गर है तो बस यही
खुद का शुक्र है महफूज़ है इस उम्र तक  …
मेरी होश की चारदीवारी  … मेरी शख्शियत

~ भावार्थ ~







Sunday, April 6, 2014

मृग तृष्णा मिटाये न मिटे

मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

बोध कि गगरी आधी है
कर्म कि गठरी लादी है
बदरी अजान की छटाये  न छटे
मृग   तृष्णा  मिटाये   न   मिटे

अहम् का बिछुआ काटें है
अविनाशी से हमको बांटे हैं
माया   की   धुंध   हटाये  न  हटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

तू दीपक और सब है अँधेरा
तू आनंद  सब  दर्द बसेरा
आसक्ति   ये   घटाए  न   घटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

ज्यूँ कांच भुवन आकाश बसाया
त्यूँ सचिदानंद त्रि-शरीर समाया
वही सत   नाम   रटाये  न  रटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

~ भावार्थ ~

Tuesday, April 1, 2014

जियो तो ऐसे जियो कि

जियो तो ऐसे जियो कि

बच्चे तुम्हारे साथ खिलखिलाने आयें
बात अपनी दुनिया की तुम्हें बताने आयें

तुम्हारे  दर से कभी कोई भूखा न जाए
गैर भी खुद को अपनों सा सरीका पाये

जियो तो ऐसे जियो कि

बिना मतलब के भी दोस्त मिलकर जाएँ
बीते हुए कल कि यादों पे खुलके हंसकर जाएँ

तुम्हारा हाथ खाली  हो फिरभी  दिल भरा हो
दिए जाने का जज्बा भीतर कभी  न मरा हो

जियो तो ऐसे जियो कि

तुम्हारी बात से अपनों को कोई गम न हो
तुम्हारी वजह से  आँख कोई भी नम न हो

गर तुम्हें दर्द हो तुम्हें तो हज़ारों दुआएं उठें
अकेले निकलों जो कभी तो साथ को राहें उठें

जियो तो ऐसे जियो कि

तुम्हारे  जाने पर अपने आसूं बहाएं
ख़ाक पे आकर अनजान भी दुआ देजाए

तेरे जाने पे लोग कहें क्या खूब जिया था
इसने जिंदगी को नहीं जिंदगी ने इसको जिया था

~ भावार्थ ~



















Monday, March 31, 2014

तरक्की कहते हैं

गाँव में छोड़ आये जो  हज़ार गज़ की  बुजुर्गों कि हवेली
वो शहर में सौ गज़ में रहने को खुद की तरक्की कहते हैं.…

इतने दूर थे कि माँ के दाग में भी शामिल न हो पाये
वो विदेशों में जाकर रहने को खुद की  तरक्की कहते हैं

~ भावार्थ ~











Sunday, March 23, 2014

चार दिवस युही कट जायेंगे

चार दिवस युही कट जायेंगे
सुख दुःख राग दुवेश तू  छोड़

कोई  है कछुआ कोई खरा है
अपनी खूबी से हर कोई भरा है
क्यों करते एक दूजे से होड़

चार दिवस युही कट जायेंगे
सुख दुःख राग दुवेश तू  छोड़

पल के रिश्ते पल के नाते
अपनी डगर हम सब हैं जाते
ये दुनिया एक बस कि तरह
जो साथ चले उतरे  अपने मोड़

चार दिवस युही कट जायेंगे
सुख दुःख राग दुवेश तू  छोड़

स्वांस की  तरह माया बदले 
स्वांग  की तरह काया  बदले 
जर्रा जर्रा नशवर दुनिया 
भीतर भीतर अपनी दृष्टि मोड़ 

चार दिवस युही कट जायेंगे
सुख दुःख राग दुवेश तू  छोड़ 

~ भावार्थ ~ 
२३ मार्च २०१४ 





Tuesday, March 11, 2014

बस अंदाज़ बदलते रहते हैं

हैं हर्फ़ वही अलफ़ाज़ वही
बस फनकार बदलते रहते हैं
दर्द-ए-जींद को कहने के
बस अंदाज़ बदलते रहते हैं

नदिया वही बहाव वही
है पतवार वही और  नाव वही
अथाह सा बहता सागर है वही
बस अफ़कार  बदलते रहते हैं

मुझको बुलाती तेरी याद वही  
उस गम को भुलाती  रात वही 
दर्द-ए-वफ़ा कि सौगात वही 
बस किस्सा-ए-यार बदलते रहते हैं 

उसकी शर्म वही उसका ताव वही 
है दोनों के भीतर जलता अलाव वही 
है इश्क़ का आगाज़ वही अंज़ाम वही 
बस किरदार बदलते रहते हैं 

हैं हर्फ़ वही अलफ़ाज़ वही
बस फनकार बदलते रहते हैं
दर्द-ए-जींद को कहने के
बस अंदाज़ बदलते रहते हैं

भावार्थ 
११-मार्च-२०१४ 








Sunday, March 9, 2014

अब बता भी दो

अब बता भी दो
अधबुने अफ़साने जो तूने बनाये  थे
तन्हाई कि स्याही में डूबकर
वो अधूरे खाब जो तूने सजाये थे
अब बता भी दो

अब बता भी दो
सुर्ख आँखों में क्यों जागती है रातें
अजनबी के अनछुए एहसास को
सोच सोच कर क्यूँ कांपती है रातें
अब बता भी दो

अब बता भी दो
दर्द कब तक लहू बन कर बहेगा
रिवाज़ों के सांचे में खामोश
कब वजूद  तेरा उठ  कर कहेगा
अब बता भी दो

अब बता भी दो
कब तू जिस्म से उठ कर भी जानी जायेगी
कब दोगलेपन  का चस्मा उतरेगा
दुनिया में कब तेरी हस्ती भी मानी जायेगी
अब बता भी दो

~ भावार्थ ~
Happy Women's Day
8/03/2014











Saturday, March 1, 2014

पँख बिना अब उड़ना सिखा दे

पँख बिना अब उड़ना सिखा दे
कांटे में दे सुकून ओ मौला
तेरी रहमत की चादर उढ़ा दे
थाम ले तू मेरा जूनून ओ मौला

चमकते चेहरे और काली रूह
ये काग भी करता मीठी कूह
भरम मिटा मुझे मुझ से मिला दे
अपना करम तू दिखा ओ मौला

पँख बिना अब उड़ना सिखा दे
कांटे में दे सुकून ओ मौला

भाग पे कालिख लगी हुई है
मत  पे माया चढ़ी हुई है
खाबो से मेरे अँधियारा मिटा दे
नूर-ए-मुनव्वर जगा ओ मौला

पँख बिना अब उड़ना सिखा दे
कांटे में दे सुकून ओ मौला

~ भावार्थ ~ 
२ मार्च २०१४ 










Sunday, February 23, 2014

बेसहारा हूँ मैं

जिसे रोज जीतने निकला
उसी दुश्मन से रोज हारा हूँ मैं
खुदको किस काम का समझूं
हद दर्जे का नाकारा हूँ मैं
बूझ कर भी न समझ  पाऊँ
इसकदर यहाँ आवारा हूँ मैं
समंदर की  ओख  में भी प्यासा
वो बदनसीब किनारा हूँ मैं
कीट भी बेहतर है मुझ इंसा से
शमा भी नसीब नहीं वो बेज़ारा  हूँ मैं
जो खुद को खुद से न बचा पाये
किस कदर  हुआ  बेसहारा हूँ मैं
जिसे रोज जीतने निकला 'भावार्थ'
उसी दुश्मन से रोज हारा हूँ मैं

~ भावार्थ ~ 




Sunday, February 16, 2014

मेरी जुस्तजू का हिरन !!!

मेरी जुस्तजू का हिरन …
मेरे हाथ नहीं आता
इस माया के जंगल में
बहरूपिया बनके  दौड़ता
मेरी जुस्तजू का हिरन …

मैं भी थक जाता हूँ
भागते भागते उसके पीछे
नज़र फिर भी रखता हूँ मैं
सोच कर कि मिलेगा मुझे
मेरी जुस्तजू का हिरन …

वक़्त कि पगडंडी पे चलते
झुर्रियां पड़ गयी जवानी पे
बूढा हो गया मैं  लेकिन
वो आज भी जवान है
मेरी जुस्तजू का हिरन

यही सोच कर निकला था
शिकार कर लाऊंगा उसे
मगर मालूम न था
शिकारी में नहीं वो है
मेरी जुस्तजू का हिरन


~ भावार्थ ~ 

Saturday, February 8, 2014

न बोलूँ मैं तो कलेजा फूंके

न बोलूँ मैं तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है
सुलग न जावे अगर  सुने वो 
जो बात मेरी  जबां  तले  हैं

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

लगे तो फिर यूँ कि रोग लागे 
न सांस आवे न सांस जावे
ये इश्क़ है नामुराद ऐसा
ये जान लेवे तभी टले है

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

हमारी हालत पे कित्ता रोवे है
आसमान भी तू देख लियो
कि सुर्ख हो जाएँ उसकी आँखें  भी
जैसे जैसे ये दिन ढले है

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

~ गुलज़ार ~

Saturday, February 1, 2014

कोहरा ओढ़े सुबह आयी

कोहरा ओढ़े सुबह आयी
इन पेड़ों के दरमियान
मद्धम हवा बहने लगी
सिरहन बिखेरती यहाँ
रास्ते खामोश हो गए
सुकून में है आसमान

ठिठुर रही है साँसे
जिस्म के इस अलाव में
धड़क रहे दिल धीमे से
बोझिल हुई पलके खाव में
जुबाँ  को प्यास नहीं
जेहेन भी है मीठे तनाव में

गर सुकून बाकी है कहीं
तो बस प्यार के आगोश में
इक चाय कि प्याली  से
कहीं आते  हैं जनाब होश में
गर्माता है  लहू और अरमाँ
चुम्बक बन जाते है जोश में

~ भावार्थ  ~









Sunday, January 5, 2014

तिलिस्म

जुड़े हुए हो अपनों से तो जिन्दा हो
तिलिस्म है ये तेरे इर्द गिर्द बसा
जो तुझे जीते जी मार रहा है भाव
कौन रखता है नोटों का बीघों का हिसाब
मौत से बढ़कर  तन्हाई का दर्द है
आज दिल को अपनों में लगा
बुढ़ापे का अँधेरा आने ही वाला है भाव.…

भावार्थ


कलियुग का आखरी पड़ा !!!

आज रौशनी  तलाशते तलाशते
सूरज दूर तक निकल आया
उस फलक पर आसमां  बेहोश पड़ा था
हवा सांस नहीं ले पा रही थी
और समंदर कई रोज के प्यासे थे
एक बहरे से पुछा तो उसका गूंगा दोस्त बोला
"सर" ये कलियुग का आखरी पड़ाव है
यहाँ भिखारी अमीर और दयालु गरीब हैं
जो विद्वान दीख पड़ते हैं असल में विक्षिप्त हैं
और जो अर्धविक्षिप्त दीखते हैं वही पंडित हैं
हया अब नारी का गहना नहीं कमजोर कि निशानी है
सच्चाई गर प्रजा है तो  राजा बेईमानी  है
यहाँ शीशे के आर पार नहीं दीखता
और आईना कोई और चेहरा दिखाता है
पेड़ और अजान  रोज कोसों चलते हैं
और लोग है कि टस  से मस  नहीं होते
शिक्षा  किताबों में कैद है
और जेहेन पे अँधेरा बेहिसाब है
जनाब ये कलियुग का आखरी पड़ाव है

~ भावार्थ~