ये बिहारी मजदूर।
जो रातों को कतारों में चलते नजर आते है।
जो जीवन भर बस दो जून की रोटी खाते हैं।
जो ख़ुद रहते हैं मिटटी के कच्चे घर में पर।
ये मेट्रो की गगनचुम्बी इमारतें बना जाते है।
उस बिहारी मजदूर के बच्चे ।
इनके बच्चो का बचपन रेत और मिटटी में कटता है।
दूसरे बच्चो को खेलता देख इनका मन भी मचलता है।
तभी माँ इनको एक रोटी के टुकड़े से बहलाती है पर।
अपनी मान से वो जिद्दी पुरी रोटी के लिए विफरताहै।
उस बिहारी मजदूर की बीवी।
सुबह सुबह किकी अधबने प्लोत में जाकर वह नहाती है।
उसकी अस्मिता दिन भर कई दफ्हा आखों से लूटी जाती है।
ढोती पत्थ्रर अपने मर्द के साथ, बच्चे को स्तन-पान कराती है।
नाज़ुक, शोखी, और मदहोशी मजदूरी के पसीने में डूब जाती है।
उस बिहारी मजदूर का जीवन।
मजदूरी उसका शौक नहीं एक जुल्म शरिकी मजबूरी है।
पढ़ न सका वो पर उसके लिए इक अवसर भी तो जरूरी है।
कम कीमत पर करेगा काम विषम समय में जीवन भर।
बिन जलालत के उसकी मौत की कहानी अधूरी है.
इस सब का सबब ...
एक बिहारी सौ बीमारी। दो बिहारी लड़ाई की तयारी।
तीन बिहारी ट्रेन हमारी। पाँच बिहारी, सरकार हमारी।...बाल ठाकरे
कहो कौन से युग में आ पहुची ये इंसानियत की डोरी है।
मर चुका है काम करने वाला अब मरने वाली मजदूरी है।
4 comments:
hriday vidarak ;) nice read.
बहुत भावपूर्ण रचना है।बधाई स्वीकारें।
Thanx a lot Paramjit....
Thanxs Anurag...!!!!
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