मैं रेत को मुट्ठी में कस के पकड़ के
आज कल साहिल पे टहलने लगा हूँ...
यूहीं किसी नज्म को गुनगुनाते हुए
दूर तक अंधेरे में चलने लगा हूँ...
लोग आते रहे और जाते रहे
मुझे उनके होने का एहसास भी न हुआ...
किसी अध-पगले की तरह दुपहरी में
मैं आजकल सपने बुनने लगा हूँ...
रात को जाग कर मैं पल में
सो जाना चाहता हूँ माँ की लोरी सुनकर...
अपनी नींद में टूटे उन अधूरे
ख्वाबो को फ़िर से पूरा करने लगा हूँ...
क्या करू न चाह कर भी वही चेहरा
नज़र आता है मुझे हर चहरे में...
किसी अपने ने कहा धीमे से मुझे
कि मैं अब मोहब्बत करने लगा हूँ...
भावार्थ...
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