कौन सी मंजिल को ये युही बढ़ी जा रही है।
इसको अंदाजा नहीं सर्द हवाओं का शायद।
इसीलिए ये फकीरी का लुफ्त उठा रही है।
नाव तो क्या इंसान तक लील गए है ये भवर।
पर ये बेखौफ सी उधर ही बढ़ती जा रही है।
उचे साहिल है जो नदी के साथ-साथ चलते हैं।
इनकी हकीकत भी नदी में घुलती जा रही है ।
ये धीमा बहाव लहरों का मद मस्त लगता है।
आज इसकी सीरत भी कुछ बदलती जा रही है।
ये ख्वाब टुटा और में उठ बैठा हैराँ सा सोचता हूँ।
मेरी ज़िंदगी भी खाली नाव सी बनती जा रही है।
भावार्थ...
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