मेरी तन्हाई जब मेरी साँसों पे छाने लगी।
जिंदगी उन लिखी नज़मो में समाने लगी।
ये न जाने कौन सा वाकया हो रहा था।
अधलिखी नज्म 'बयाज़'* से बाहर आने लगी।
उसने जिस अदब से हया को पहना था।
मेरे होश अपने आप को ढूढने लगे।
उसका दीदार इस कदर छाया मुझ पे।
मेरे ख्याल रूमानियत में डूबने लगे।
उसने "आदाब" जिस अंदाज़ से फ़रमाया।
हर अल्फाज़ " या अल्लाह" पे सिमट गया।
जिस फकीरी के चोगे को मैंने सालों पहना।
वही इस हुस्न-ऐ-बुता पे आज मिट गया।
ये तो कुछ साल पहले की लिखी नज्म थी।
उन्दिनो मुझ पे पे इश्क का सुरूर छाया हुआ था।
वो धीरे धीरे मेरे दिमाग से निकली और ।
और उसका असर मेरे दिल पे आया हुआ था।
मैंने पूछा की क्यों वह भी बेवाफ़ निकली।
क्यों मेरी हर तस्वीर-ऐ-इश्क उसने तोडी।
आख़िर तक देखता रहा उसे रास्ते पे बेपलक ।
पर क्यो उसने अपनी नज़र एकबार न मोडी।
आख़िर उसकी चुप्पी टूटी और बोली आपने।
अधूरी शक्शियत मेरी अल्फजो में बंद कर दी।
हम कैसे मुड़ कर देखते आपको बोलो।
आपने बीच मैं ही अपनी कलम बंद कर दी।
मेरी आदते हादसा बन गई मेरे लिए।
में अपने अंदाज़-ऐ-बया में बह गया।
में पुरी न कर पाया उज़ नज्म को।
और मेरा ये इश्क भी अधूरा रह गया।
भावार्थ...
बयाज़: Diary, हुस्ने-ऐ-बुता: Beauty of Idol
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