Monday, March 3, 2008

ये रात और ये तन्हाई !!!

कल जब दुपहर की शाम हुई तो मैं।
उसके साथ टहलने निकल लिया।
जैसे जैसे बयार बहने लगी।
शाम ने फिजा में अँधेरा भर दिया।

सूरज आखरी बार दमका।
और दबे पाऊँ कुछ तारे बाहर खेलने आ गए।
चाँद थोडी देर में चमका।
पर बादल बार बार उसको छुपाने आ गए।

सन्नाटा जैसे शोर को लील गया था और
उसका गुस्सा कोहरा बनके छा गया था।
जीवन जैसे मर गया था, जुगनुओं के सिवा
गाँव जैसे उजड़ गया था, अंधेरे के सिवा।

चांदनी घुलने को बेताब थी।
उसको कफ़न का रंग बेहद पसंद है।
लोरियां नादान व्यस्त थी ।
रात को सोता हुआ इंसान पसंद है।

रात को भीड़ का अजीब सा खौफ है।

तभी भीड़ को अंधेरे से डराती है।
लोग उसको उजाले से बेअसर करते हैं।
वह इसलिए तनहा जिए जाती है।

रात की तन्हाई से दोस्ती अटूट है।
दोनों का मिजाज़ एक जैसा है।
दोनों मैं गले तक भरा गम है।
उनका रूमानी सुरूर भी नम है

लेकिन मेरी तासीर भी इनसे मिलती है।
मेरी हर नज्म इनके सबब से सिलती है।
मेरे हर जर्रे में है उस बेवफा की परछाई।
रात जैसा गम और एक नम सी तन्हाई।

भावार्थ...

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