मैं रेत को मुट्ठी में कस के पकड़ के साहिल पे टहलने लगा हूँ।
यूहीं किसी नज्म को गुनगुनाते हुए दूर तक अंधेरे में चलने लगा हूँ।
लोग आते रहे और जाते रहे मुझे उनके होने का एहसास भी न हुआ।
किसी अध-पगले की तरह दुपहरी मैं आजकल सपने बुनने लगा हूँ।
रात को जाग कर मैं पल में सो जाना चाहता हूँ माँ की लोरी सुनकर।
अपनी नींद में टूटे उन अधूरे ख्वाबो को फ़िर से पूरा करने लगा हूँ।
क्या करू न चाह कर भी वही चेहरा नज़र आता है मुझे हर चहरे में।
किसी अपने ने कहा धीमे से मुझे कि में अब मोहब्बत करने लगा हूँ।
भावार्थ...
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Thursday, March 27, 2008
में अब मोहब्बत करने लगा हूँ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment