हर पड़ोसी के दर्द में शरीक हुआ हूँ में ।
हर खुशी को अपनी समझ जिया हूँ मैं ।
क्यों अर्थी को कन्धा लगाने न आया कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।
तोहफे हर मौके पे मैंने कर्ज ले कर दिए।
हस के मिला उन्स्से, गम उनके सारे लिए।
क्यों फ़िर मेरे आस्तां पे दिया जला नहीं कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।
खुशी के दीप मैंने जिनके घरो में जलाए।
सब हवन भी किए, कोई बुरा साया न आए।
क्यों आग लगाने मुझे इस रोज न आया कोई।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।
सारे रिस्थ्ते धर्म मान कर निभाए मैंने।
दुःख न पहुंचे ऐसे गीत ने गुन्ग्नाये मैंने।
मुझे भी दगा दे गई ये सौतेली दुनिया जबकि।
मैंने तो हर रस्म निभाई थी दुनिया की।
भावार्थ...
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