खुदा फ़िर वोही हवादिस कर दे।
उससे मिलना मुनासिब कर दे।
शब-ऐ-गम अब सहा नहीं जाता।
ये हिज्र कुछ तो मुख्तसर कर दे।
उसकी बेरुखी अजाब-ऐ-हयात है।
ये इन्तिशार अब तो ख़तम कर दे।
साल लील गए जिस रूमानियत को।
वो वल-वाला-ऐ-इश्क फ़िर भर दे।
वो बेवफा बन जाए तो बेहतर है।
पर इस जुमूद को यू बेअसर कर दे।
भावार्थ...
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