Wednesday, February 27, 2008

मौला मुझको बख्श इस मोहब्बत-ऐ-हयात के तोहफे से !!!

में थमा थमा हूँ उन रहो पे जिनपर में चल रहा हूँ।
बुझा रहा हूँ जिस आग को उसीमें ख़ुद जल रहा हूँ।

ये हो न हो तेरे प्यार का ही मिला कोई अजाब शाकी ।
तू बिछुड़ रही है मुझसे और में तुझसे मिल रहा हूँ ।

तेरा
ये दर्दे-हिज्र रात भर रुलाता है मुझे खून के आँसू ।
वोही घाव फ़ुट पड़ते हैं मेरे जिनको मैं रोज सिल रहा हूँ।

यही सिला मिलता है एकतरफा मोहब्बत अमीरों से करने का।
जिया उसी लौ से उनकी जिसमें में मोम सा पिघल रहा हूँ।

मौला मुझको बख्श इस मोहब्बत-ऐ-हयात के तोहफे से।
जो तार-ऐ-नफस हैं मेरा में उसी की सासों में घुल रहा हूँ।

भावार्थ ...

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