कली ने एक भ्रमर का सपना देखा।
सपनों को यूँ उसने हकीकत बनते देखा।
बसंत आ गया, डाली डाली पर फूल बिखरे हैं ।
अपने यौवन को भी उसने आज उमड़ते देखा।
ऎसी खुमारी छाई है , हर एक जर्रे पे सजाने की ।
हर फूल को उसने रंगो से फिर सवरते देखा ।
भ्रमर का झुंड जब भी मद आवाज मैं निकले।
अपने अरमानों को हर बार उसने मचलते देखा।
आज जब भ्रमर पास से गुज़रा बिन कुछ कहे ।
तो फिर उसने जा कर बार बार आईना देखा।
शृंगार कर फिर लौटी जल्दी से वह तो ।
सोचने लगी उसने आज उसको क्यों नहीं देखा।
भ्रमर जब किसी और कली की गली से गुज़रे भी गर।
ईर्ष्या का बीज उसने अपने भीतर उपजाते देखा।
वह दिन भी आया कानो मैं आई घुन-घुन सी ले ।
उसने भ्रमर को पहले बार खुलकर आँख भर देखा।
कुछ नहीं बोला, वो लबों से आज फिर न जाने क्यों।
उसने मनचली आखों को ही हर बात बुनते देखा।
आज भ्रमर ने पास आने का संदेसा हवा को भेजा।
तो फिर उसने बाकी कलियों को आज जलते देखा।
शाम रंगीन, मद्धम हवा, नीला आसमान था उस रोज।
उसने तारो को भी उस दिन खुलकर चमकते देखा।
सामने जब भ्रमर आया, उसकी पूरी दुनिया बनकर ।
उसने को खुद को फिर वहाँ हया में लिपटते देखा।
ये कहूंगी, ऐसे कहूँगी क्या क्या सोचा था उसने ।
अपने आप को कुछ अल्फाज पे सिमटते देखा।
वो भी सहमा सा था आज उस कली से मिल कर।
अपनी हालत से उसने, उसको भी फिर गुजरते देखा।
में कहाँ फूल कि कली और वो गूंजे का भवरा।
लेकिन आज उसको वहाँ उसने अपने सा बनता देखा।
कली ने एक भ्रमर का सपना देखा।
सपनों को यूँ उसने हकीकत बनते देखा।