Monday, March 17, 2008

में हूँ या शायद की हूँ ही नहीं !!!

इन बाजारों के समुद्र में।
भीडो के कारवा तैरते हैं।
सड़के भौचक्की सी है।
चौराहे मिलते बिछुडते हैं।

गली गली को ढूढती है।
रास्ते गुमराह हो चुके हैं।
मंजिल बेघर हुई है।
सफर बर्बाद हो चुके है।

हादसे जैसे बेखौफ हुए हैं।
डर को डर नहीं लगता।
तलाश खतम नहीं होती।
रिश्ता रिश्ता नहीं लगता।

कीमत को शर्म आ रही है।
खरीद बेमानी हुई है।
दुकानों पे मेले लगे है।
पर तन्हाई छायी हुई है।

धोखा खून्कार हुआ है।
विश्वास मिट रहा है।
किस्मत का बोलबाला है।
यहाँ प्यार घट रहा है।

सोच सोचने पे मजबूर है।
खयालो का ख्याल नहीं।
सपने सिर्फ़ एक सपना है।
अरमान अब अरमा नहीं।

हकीकत घिनौनी है।
वास्तविकता पे विश्वास कहाँ है।
सच ख़ुद झूट बोलता है।
खुदा को ख़ुद पे विस्वास कहाँ है।

रूह ख़ुद को महूस कर नहीं सकती।
वजूद है भी शायद है ही नहीं।
जिस्म को होश ही कहाँ है अपना।
में हूँ या शायद की हूँ ही नहीं।

भावार्थ...






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