Monday, February 4, 2008

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई।
जली लौ को फिर से बुझा दे कोई।

वो लुटती रही जिनके लिए एक तमाशा बन कर ।
उन मर्दो को किन्नर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

जो लेते हैं जान, खुदा के रहनुमा बन कर।
उन्हें काश काफिर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

बनाने मैं लगे हैं जो अतीमों की दुनिया ।
उनका अपना चिराग भी बुझा दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

नशा बेच कर जो छीन लेते है रिश्ते ।
उनके सर से रिश्तों की छाया उठा ले कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

गर यही है आदमी की घिनौनी हकीकत।
तो उस आदमी को पत्थर बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

बेच बैठा है जो सरे बाज़ार मैं इमां ।
उसे फिर से मुसलमाँ न बना दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

लकीरें खीच जो बनाते है जो फासले दिल मैं।
उनका नामोनिशां भी आज मिटा दे कोई।

इस इन्साँ को मुर्दा बना दे कोई...

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