मेरी तनहा ज़िन्दगी तो होश में ही नहीं थी।
कौन सी नशीली मय थी जो मुझे पिला दी गई।
मौत आ चुकी थी मेरे हर एक रिसते जर्रे को।
कौन सी दवा थी फ़िर जो मुझे खिला दी गई।
मैं मुफलिसी में इबादत भी न कर सका खुदा।
न जाने कौन सी दुआ थी जो मुझे उढा दी गई।
ये बेरुखी, बेबसी और कसक मेरी आहो में थे।
नजाने कौन सी निखत मेरी सब में उड़ा दी गई।
तीरगी ख़तम न होने का नाम ही न ले रही थी।
कौन से एहसास की बयार थी जो फ़िर चला दे गई।
उस पीर ने जिसे मोहब्बत कहा था बातो बातो मैं।
वही मय, दवा,दुआ,निखत, और बयार बना दी गई।
भावार्थ...
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