Saturday, August 2, 2008

मानव बम...

दमन का बारूद।
आक्रोश का बम बनाता है।
जिसको इंसान अपने।
दिल में बसाता है।
कब फूट पड़ेगा ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।

कसक की चिंगारी।
कब दिमाग में सुलग जाए।
कब धीरे से बना गुस्सा।
लावा बन के बह जाए।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।

भीतर जो इंतेशार पाला।
कब वो जूनून बन गया।
में जुमूद समझता रहा उसे।
वो कब तबाही बन गया।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।

आस पास जब नज़र टटोली।
कोई हार की 'पिस्टल' लिए।
कोई कॉम का "बम" लिए।
कोई हक की 'लड़ी' लिए।
कब फूट पड़े ये मानव बम।
ये कोई नहीं जानता।

भावार्थ...

1 comment:

Anonymous said...

this kavita has an autobiographical
touch ...good going !
yes to know ur poems better i'll have to learn urdu, so this is my next target...